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________________ शान्तिवीकृत प्रमेयाकष्ठिका २२९ सत्य है, जगत् मिथ्या है। ऐसी स्थिति में इन्द्रियादिक मानना चाहिए कि इन्द्रिय जिस पदार्थ से सम्बन्ध नहीं की प्रमाणता अपेक्षित है। करती, उसे नहीं जानती, क्योकि यह कारक है, जैसे चार्वाक प्रात्म तत्त्व को ही नही मानता। इस- बढई का बसूला लकड़ी से दूर रह कर अपना काम नहीं लिए उसे इन्द्रिय ज्ञान को ही प्रमाण मानना अनिवार्य है। करता। जिस प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय पदार्थ को छ कर चिन्तन की इन दो विरोधी दष्टियों का प्रभाव प्रमाण जानती है, उसी प्रकार अन्य इन्द्रियाँ भी पदार्थ सस्पृष्ट की परिभाषा, उसके भेद तथा प्रामाण्य आदि के निर्धारण हो कर जानती है । पर पड़ा है। उसी का परिणाम है कि प्रारम्भ से अन्त सन्निकर्ष को प्रवृत्ति प्रक्रिया (न्यायमं० पृ०७४) तक यह दृष्टि-भेद सर्वत्र उपलब्ध होता है। प्रत्यक्षज्ञान चार, तीन पथवा दो के सन्निकर्ष से नयायिकों का सन्निकर्षवाद उत्पन्न होता है। बाह्य रूप प्रादि का प्रत्यक्ष चार के नैयायिक इन्द्रिय सन्निकर्ष को प्रमाण मानते है। सन्निकर्ष से होता है । पात्मा मन से सम्बन्ध करता है, मन वात्स्यायन ने न्यायभाष्य मे प्रत्यक्ष की व्याख्या इस इन्द्रिय से, इन्द्रिय अर्थ से। सुखादि का प्रत्यक्ष तीन के प्रकार की है सन्निकर्ष से होता है। इसमे इन्द्रिय काम नहीं करती। "प्रक्षस्याक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम् । वृत्तिस्तु योगियों को जो आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। वह केवल मन्निकर्षी शान वा, यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमिति, प्रात्मा और मन के सन्निकर्ष से होता है। यदा ज्ञान सदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम् ।" सन्निकर्षवाद की समीक्षा --यायभा० १.१.३ नैयायिको के इस लक्षण का निरास जैन ताकिकों ने उद्योतकर ने भी न्यायवार्तिक में वात्स्यायन के भाष्य विस्तार के साथ किया है (न्यायकुसु० पृ० २५-३२, का अनुगमन करके सन्निकर्ष और ज्ञान दोनों को प्रत्यक्ष प्रमेयक पृ० १४.१८) । सक्षेप मे वह इस प्रकार है। प्रमाण मान कर इसका प्रबल समर्थन किया है । १. वस्तु का ज्ञान कराने मे सन्निकर्ष साधकतम (न्यायवा० १.१. ३.) नही है, इसलिए वह प्रमाण नहीं है। जिसके होने पर न्यायसूत्र की व्याख्या मे वाचस्पति का भी वही ज्ञान हो तथा नहीं होने पर न हो, वह उसमें साधकतम तात्पर्य है माना जाता है। सन्निकर्ष में यह बात नहीं है। कही. गनियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमध्यवेश्यमव्यभिचारि कही सन्निकर्ष के होने पर भी ज्ञान नहीं होता। जैसे व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ।" -न्याय० १.१.४ घट की तरह ग्राकाशप्रादि के साथ भी चक्ष का सन्ति न्यायभाष्य (पृष्ठ २५५) तथा न्यायमजरी (पृ. ७३, कर्ष रहता है, फिर भी, आकाश का ज्ञान नहीं होता। ४७६) में इसका विस्तृत विवेचन है । प्रताव मन्निकर्ष प्रमाण नही है। सन्निकर्षवादी नैयायिको का कहना है कि अर्थ का २. सभी इन्द्रियाँ छू कर जानती हों, यह बात नहीं ज्ञान कराने में सबसे अधिक मांधक सन्निकर्ष है । चक्षु है। चक्ष छु कर नही जानती। यह छू कर जानती, तो का घट के साथ सन्निकर्ष होने पर घट का ज्ञान हाता आँख में लगे हुए प्रजन को देखना चाहिए, किन्तु नहीं है। जिस प्रथं का इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष नही होता, देखती। इसी प्रकार यदि छु कर जानती तो ढकी हुई उसका ज्ञान भी नही होता। यदि इन्द्रियों से असन्निकृष्ट वस्तु को नही जानना चाहिए, पर ऐसा नहीं है। कांच प्रर्थ का भी ज्ञान माना जाएगा, तो सबको सब पदार्थों का प्रादि पारदर्शी द्रव्य से ढकी हुई वस्तु को वह जान लेती ज्ञान होना चाहिए । किन्तु देखा जाता है कि जो पदार्थ है। अतएव चक्षु प्राप्यकारी नही है। जैन दार्शनिकों ने दृष्टि से मोझल होते है, उनका ज्ञान नहीं होता। चक्ष के प्राप्यकारित्व का विस्तार से खण्डन किया है दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय कारक है, प्रार कारण (तत्त्वा. ग. वा. पृ० ८, न्यायकु० पृ० ७५-६२, दूर रह कर अपना काम नही कर सकता। प्रतएव यह प्रमेयक० पृ० २२०-२२६) ।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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