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________________ २२८, वर्ष २३, कि० ५-६ अनेकान्त "विषयाषिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते । ८. हेमचन्द्र स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा।" "सम्यगर्यनिर्णयः प्रमाणम्।" -प्रमाणमी० १.२ -तत्त्वसं० का० १३४४ ६. धर्मभूषण बौद्ध परम्परा के इस प्रमाण लक्षण में 'स्वसंवेदन' के "सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् ।" -न्यायदी० पृ०१ विचार का प्रवेश हुमा तथा उसके द्वारा ज्ञान में 'स्वपर जैन सम्मत प्रमाण लक्षरण का विकास प्रकाशत्व' को सूचित किया गया । प्रमाण के उपर्युक्त लक्षणों को देखने से ज्ञात होता प्रसंग और वसुबन्धु ने विज्ञानवाद स्थापित किया है कि हेमचन्द्र ने सभी जैन-जैनेतर प्रमाण लक्षणों को पर दिङ्नाग ने उसका जोरों से समर्थन किया। इस ध्यान में रख कर अपना प्रमाण-लक्षण निश्चित किया है। स्थापना और समर्थन पद्धति में स्वसंविदितत्व या स्वप्रका- इसमे पूर्वाचार्यों के स्व पद को सर्वथा अलग कर दिया शत्व का सिद्धान्त स्फुटतर हुमा, जिसका किसी न किसी गया है तथा 'अवभास', 'व्यवसाय' प्रादि पदो के स्थान रूप में अन्य दार्शनिकों पर भी प्रभाव पड़ा। पर निर्णय पद रखा है एवं उमास्वामि धर्मकीर्ति तथा भासर्वज्ञ के सम्यक पद को ग्रहण किया है। जैन परम्परा मे प्रमाण सामान्य के लक्षण का विकास धर्मभूषण ने सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण कहा, क्योंकि निम्नलिखित रूप में देखा जाता है-- वही सम्यम् अर्थ का निर्णायक है। १. समन्तभद्र इस प्रकार प्रमाण के लक्षण में शाब्दिक मन्तर रहते "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।" हुए भी अर्थरूप में विशेष अन्तर नहीं है, प्रत्युत लक्षणो -प्राप्तमी० १०१ का क्रमिक विकास विचार विकास का द्योतक है। "स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् ।" भारतीय प्रमारण शास्त्र में प्रमाण __ - बृहत् स्व०६३ प्रमाण लक्षण के इस ऐतिहासिक विकास क्रम को १. सिद्धसेन देखने के उपरान्त वैचारिक दृष्टि से भी इसका पर्याय"प्रमाणं स्वपराभासिज्ञानं बापाविजितम् ॥" लोचन अपेक्षित है। -न्यायवा० १ प्रमाण के उक्न लक्षणों मे ज्ञात होता है कि भारतीय ३. प्रकलंक प्रमाणशास्त्र में मुख्य रूप से दो दृष्टियाँ रही है"प्रमाणमविसवादिज्ञानम्, मनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात्॥" १. ज्ञान को प्रमाण मानने वाली। -प्रष्ट श० प्रष्टस० पृ० १७५ २. इन्द्रिय आदि को प्रमाण मानने वाली। ४. माणिक्यनन्दि "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमाणम् ।" जैन और बौद्ध परम्परा में ज्ञान को प्रमाण माना -परीक्षा० १.१ गया है। दोनो मे अन्तर यह है कि जैन सविकल्पक ज्ञान ५. विद्यानन्द को प्रमाण मानते है बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को। इन "तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता । मान्यताप्रो की पृष्ठभूमि में दोनों परम्पराग्रो का सैद्धालक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्यद्विशेषणम् ।।" तिक चिन्तन विद्यमान है। जैनो की मान्यता है कि -- तत्त्वार्थश्लो० १.१०.७७;--प्रमाणपरी० पृ०५३ निविकल्पक ज्ञान प्रर्थ का निश्चायक नही हो सकता। ६. अभयदेव इसलिए उनके यहाँ सविकल्पक ज्ञान नही बनता । "प्रमाणं स्वार्थनिर्णोतिस्वभावं ज्ञानम् ।' दूसरी परम्पग वैदिक दर्शनो की है। न्याय-वैशेषिक, -----सन्मतिटी. पृ० ५१८ सांख्य-योग, मीमांसक सभी किसी न किसी रूप मे इन्द्रि७. वादो देवसूरि यादि को प्रमाण मानते हैं। इसका भी कारण उनकी "स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणम् ।"--प्रमाणन य०१.२ सैद्धान्तिक चिन्तन-परम्परा है । वैदिक दर्शनो मे ब्रह्म ही
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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