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शान्तिवर्णीकृत प्रमेयकण्ठिका
२२७ सामर्थ्यात् बोद्ध व्यं प्रमीयते अनेन इति करणार्थाभिधानो मीमासकों की इस परम्परा मे न्याय-वैशेषिक तथा हि प्रमाणशब्दः।"
-न्याय भा० १.१.३ बौद्ध दोनो परम्परामों का संग्रह हो जाता है। 'प्रदुष्टइस लक्षण में कणाद की तरह कारण शुद्धि पर ध्यान कारणारब्ध विशेषण से कणाद कथित कारणदोष का न रखकर मात्र उपलब्धि रूप फल की अोर दृष्टि रवी निवारण हो जाता है तथा 'निर्बाधत्व' एव 'अपूर्वार्थत्व' गयी है।
विशेषण के द्वारा बौद्ध परम्परा का भी समावेश हो वाचस्पति मिश्र
जाता हैवाचस्पति ने वात्स्यायन के उपर्युक्त निर्वचन मूलक "एतच्चविशेषणत्रयमुपाददानेन सूत्रकारेण कारणदोषप्रमाण-लक्षण में पाने वाले दोषो का परिहार करते हुए बाषकज्ञानरहितम् प्रगहोतग्राहिज्ञानं प्रमाणमिति 'अर्थ' पद का सम्बन्ध जोड़ कर प्रमाण लक्षण को इस
प्रमाणलक्षणं सचितम् ॥" प्रकार प्रस्तुत किया है
-शास्त्रदीपि० पृ० १२३ ___ "उपलब्धिमात्रस्य अभ्यभिचारिणः स्मृतेरन्यस्य कुमारिल कर्तृक माने गये निम्नलिखित इलोक से यह प्रमाणशब्देन अभिधानात् ।" -तात्पर्य०, पृ० २१ और भी स्पष्ट हो जाता हैउदयनाचार्य
"तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाघजितम् । उदयनाचार्य ने उपयुक्त लक्षण को 'गौतमनयसम्मत' अदुष्टकारणारब्धं प्रमाण लोकसम्मतम् ॥" कह कर इस रूप में प्रस्तुत किया है
इस लक्षण मे प्रमाणसामान्य लक्षण के ऐतिहासिक "यथार्थान भवो मानमनपेक्षतयेष्यते ।
विकास की दृष्टि से अनधिगत बोधक 'अपूर्व' पद का मिति: सम्यक परिच्छिति तद्वत्ता च प्रमातता।
समावेश प्रमाणलक्षण मे देखा जाता है। तदयोगव्यवच्छेद. प्रामाण्य गौतमे मते ।।"
बौद्ध ----न्यायकुसु० ४. १. ५ दिङ्नाग ने प्रमाण का लक्षण इस प्रकार दिया हैबाद के सभी न्याय-वैशेषिक ग्रन्थो में प्रमाण की यह 'स्वसंवित्तिः फलं चात्र तदरूपावर्थनिश्चयः । परिभाषा ममान रूप से मान्य है। इस परिभाषा के विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मोयते ।।" निष्कर्ष रूप में प्रमाण-मामान्य के लक्षण में मुख्यतया
-प्रमाणस० ११० निम्नलिखित बाते ध्यान देने योग्य है
इस लक्षण में स्वसवित्ति' पद का फल के विशेषण १. कारणदोष के निवारण द्वारा कारणशद्धि को रूप में निवेश किया गया है।
धर्मकीति ने प्रमाण लक्षण इस प्रकार दिया है२. विषयबोधक अर्थपद का लक्षण में प्रवेश ।
"प्रमाणमविसंवादिज्ञानमर्थक्रियास्थितः । मीमांसक
अविसंवादनं शाम्वेऽप्यभिप्रायनिवेदनात् ।।" प्रभाकर और उनके मतानुयायी मीमांसक विद्वानो
-प्रमाणवा० २.१. ने अनुभूति को प्रमाण माना है -
इम लक्षण में धर्मकीति ने 'अविसवादित्व' विशेषण "अनुभूतिश्च नः प्रमाणम् ।" -वृहती १. १. ५ का निवेश किया है। यह वात्स्यायन के 'प्रवृत्तिमामर्थ्य'
कुमारिल तथा उनकी परम्परा वाले अन्य मीमांसको तथा कुमारिल के 'निधित्व' विशेषण का पर्याय समझना ने यह लक्षण माना है
चाहिए। "पौत्पत्तिकगिरा दोषः कारणस्य निवार्यते ।
न्यायबिन्दु (१.२०) में धर्मकीति ने दिड नाग के पर्थप्रबायो व्यतिरेकेण स्वतस्तेन प्रमाणता ॥ सारूप्य का ही निर्देश किया है। सर्वस्यानुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं स्मृतिरन्यथा ॥'
शान्तरक्षित के लक्षण में दिङ्नाग तथा धर्मकीर्ति -श्लोकवा० पौत्प० श्लो०१०-११ दोनो के प्राशय का संग्रह देखा जाता है ।