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________________ २२६, वर्ष २३, कि०५-६ मोर मिलाकर २२ पंक्तियां तथा प्रति पक्ति २१ अक्षर विषय विवेचन है। प्रतिलिपिकार ने प्रतिलिपि करने का विवरण इस प्रमार-लक्षरण विचार प्रकार दिया है प्रमाण का व्युपत्तिलभ्य अर्थ है-प्रमीयते येन तत् "कोषनसवत्सरे माघमासे कृष्णचतुर्दश्यां विजयचनेण प्रमाणम् अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान हो, वह नक्षत्रियेण श्रीशान्तिणिविरचिता प्रमेयकण्ठिका लिखि प्रमाण है। सभी भारतीय दार्शनिको ने प्रमाण की यह वत्वा समापिता । भा भूयात् । वर्षता जिनशासनम् ॥" सामान्य परिभाषा स्वीकार की है। यह प्रतिलिपि किस मूल प्रति से की गई है, इसकी प्रमाण से वस्तु के वास्तविक स्वरूप का बोध होता जानकारी न तो इस प्रतिलिपि से प्राप्त हाती है और न ही है। तदनुसार हेय, उपादेय और उपेक्षणीय अर्थो मे यथा. किसी अन्य स्रोत से पता लग सका । अक्षरो की बनावट नुरूप प्रवृत्ति, निवृत्ति पोर उपेक्षा होती है। यही प्रमाण साधारणतया स्पष्ट होते हुए भी ग्रन्थ बहुत अशुद्ध है। शास्त्र की महत्ता और उपयोगिता का प्रमुख कारण है । प्रस्तुत सस्करण में इस प्रति के पाठान्तर प्रसकेत के साथ भारतीय चिन्तन में प्रमाणशास्त्र के विकास की एक पाद टिप्पण में दिये गए है। दीर्घकालीन परम्परा है। वेदो को स्वतः प्रमाण मानन ब-यह प्रति श्री ऐलक पन्नालाल सरस्वतीभवन, वाल मीमासक, ईश्वर का जगत का कर्ता मानने वाले व्यावर (राजस्थान) की है। इसम ११३"x६३" नयायिक, प्रकृति और पुरुप को सृष्टि का कारण और प्राकार के मफेद कागज पर लिखे १८ पत्र है । पहला मूल तत्त्व मानने वाले साख्य, सत्ता मात्र को क्षणिक पत्र एक मोर लिखा गया है। प्रत्येक पत्र में दोनो ओर मानने वाले बौद्ध तथा अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को मिला कर २२ पत्तियाँ तथा प्रत्येक पक्ति मे पचास के मानने वाले जनों की सुदीर्घ चिन्तन परम्परा, विचारो के लगभग प्रक्षर है। प्रतिलिपि का विवरण इस प्रकार पारस्परिक आदान-प्रदान एव घात-प्रतिघात से प्रमाणदिया है शास्त्र का पर्याप्त विकास हुमा है और प्रत्येक चिन्तन "मिति पौष सुदी १२ सवत् १९९१ ह. पं० ठाकुर- पद्धति के अनेक विशिष्ट ग्रन्थ उपलब्ध होत है । उन्ही के बास बोबे मुकाम चन्देरी।" मालोक मे यहाँ विचार किया जायगा। यह प्रतिलिपि किस मूल प्रति से की गयी है, इसका न्याय-बशेषिक पता नही चलता । प्रारा की प्रति की अपेक्षा यह शुद्ध है, कणादका प्रमाण-लक्षण किन्तु पूर्णरूप से शुद्ध नहीं है। इस प्रति के पाठान्तरब ताकिक परम्परा के उपलब्ध इतिहास मे कणाद का सकेत के साथ पाद टिप्पण मे दिये गए है। स्थान प्रथम है । उन्होने प्रमाण सामान्य का लक्षण इस उपयुक्त दोनो प्रतियों के प्राधार पर पाठ सशोधन प्रकार दिया हैकिया गया है। यदि अधिक प्राचीन और शुद्ध प्रति उप "प्रदुष्टं विद्या ।" ६.२.१२ लब्ध होती तो सम्पादन में विशेष उपयोगी होती। इन अर्थात् निर्दुष्ट विद्या को प्रमाण कहते है। प्रमाण दोनो प्रतिलिपियो के तुलनात्मक अध्ययन से प्रतीत होता का यह लक्षण कारण शुद्धिमूलक है। है कि प्रतिलिपियाँ अलग-अलग मूलप्रतियो से की गयी है। गौतम का प्रमाण-लक्षण पारा की प्रति श्री नेमिचन्द्र जैन तथा ब्यावर की प्रति प्रक्षपाद गौतम का न्यायसूत्र प्रमाणशास्त्र का एक ५० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री के मौजन्य से प्राप्त हुई प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें प्रमाण सामान्य का लक्षण नही थी। इसके लिए दोनों का मामारी हूँ। है । न्याय भाष्यकार वात्स्यायन ने इस कमी को प्रमाण विषय वस्तु के अनुसार पांच स्तबकों की सामग्री को शब्द के निर्वाचन द्वारा इस प्रकार पूरा किया हैमैंने एक सौ छम्बीस पेराग्राफों में विभाजित किया है। 'उपलग्यिसाधनानि प्रमाणानि इति समाख्यानिर्वचन
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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