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________________ जैन न्याय की एक अप्रकाशित कृति : शान्तिवर्णीकृत प्रमेयकण्ठिका डा० गोकुलचन्द्र जैन, प्राचार्य, एम. ए., पो-एच. डी. प्रमेयकण्ठिका जैन न्याय की एक लघुकाय किन्तु विषय सप्तभंगी रूप है। संक्षेप में इसका विवेचन महत्त्वपूर्ण कृति है। माणिक्यनन्दि कृत परीक्षामुख के किया गया है। प्रथम सूत्र, 'स्वापूर्वाथव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' ५. पाचवें स्तबक में विस्तार के साथ जगत्कर्तुत्ववाद को प्राधार बनाकर इमकी रचना की गई है । लेखक ने की समीक्षा करके सर्वज्ञमिद्धि का प्रतिपादन किया ग्रन्थ के मगल श्लोक में कहा है कि परीक्षामुख के प्रथम गया है। सूत्र का विवेचन कर रहा है। वास्तव मे ग्रन्थ मे मात्र ग्रन्थकार ने प्रत्येक स्तबक तथा ग्रन्थ के अन्त में इसी सूत्र का विवेचन नही है प्रत्युत प्रमाण शास्त्र के इसका नाम प्रमेयकण्ठिका दिया है । कठिका गले मे पहसभी प्रमुख विषयो-प्रमाण का लक्षण. प्रमाण का फल, नने का एक विशिष्ट आभूषण होता है। जिस प्रकार प्रामाण्य, प्रमाण का विषय, सर्वज्ञत्व विचार प्रादि का कठ की शोभा कठिका से और अधिक बढ़ जाती है, उसी संक्षेप मे सुव्यवस्थित विवेचन किया गया है । जैन न्याय प्रकार प्रमेयकण्ठिका से प्रमाणशास्त्र की श्रीवृद्धि होगी। माहित्य में इस प्रकार का दूसरा उदाहरण न्यायदीपिका प्रमेयकण्ठिका में जितना विषय है, उतना तो प्रमाण है । धर्मभूषण यति ने तन्वार्थसूत्र के "प्रमाण शास्त्र के अध्येता के गले मे रखा रहना चाहिए-उसे नये रधिगम." नामक सूत्र को आधार बनाकर इस की कठान रहना चाहिए। कठिका समृद्धि की प्रतीक है, रचना की है तथा सक्षेप में प्रमाण शास्त्र के सभी विषयो प्रमयकाण्ठका विद्वत्ता का । को समाहित करने का प्रयत्न किया है। प्रमेयकण्ठिका की भापा सरल सस्कृत है। पूरे ग्रंथ मे मगलाचरण तथा अन्त के चार पद्यो के अतिरिक्त शेष विषय-विभाग भाग गद्य में है । शैली अन्य न्याय ग्रन्थो जैसी होते हुई प्रमेयकण्ठिका पाच स्तबकों में विभाजित है । भी सरस प्रौर प्रवाहमयी है । ग्रन्थकार ने न्याय जैसे विषय वस्तु के साथ वे इस प्रकार है दुरूह विषय को भी हृदयग्राही शैली में प्रस्तुत किया है। १. प्रथम स्तबक मे प्रमाण का सामान्य लक्षण, प्रमाण प्रमयकण्ठिका का मैने सर्वप्रथम सम्पादन किया है। पोर फल का परम्पर सम्बन्ध तथा कथचित् उनके भेदाभेद का प्रतिपादन किया गया है। इसका प्रकाशन शीघ्र होगा। यह सस्करण निम्नलिखित दो हस्तलिखित प्रतियों २. द्वितीय स्तबक मे क्रमशः नयायिक, माख्य, प्रभाकर, के आधार पर तैयार किया गया हैभाट्ट तथा बौद्ध सम्मन प्रमाण लक्षणो का विवेचन प्र-यह प्रति श्री जैन सिद्धान्त भवन, पारा और उनकी समीक्षा प्रस्तुत की गई है। (बिहार) की है। इसमे सफेद कागज पर लिखे ८३"x ३. तृतीय स्तबक में प्रामाण्य की ज्ञप्ति तथा उत्पत्ति के ६६ प्राकार के ३८ पत्र है। प्रत्येक पत्र में दोनों विषय में दर्शनान्तर सम्मत विचारधारामो की समीक्षा करके जैन दृष्टि का प्रतिपादन किया गया १. इसी प्रकार के कागज पर लिखे किसी अन्य न्याय ग्रन्थ के पाठ पत्र भी इसी बस्ते मे भूल से रख दिये ४. चतुर्थ स्तबक में बताया गया है कि प्रमाण का गये लगते हैं, जिन्हे इसी ग्रन्थ का समझ लिया गया ।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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