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२३०, वर्ष २३, कि० ५-६
अनेकान्त
३. सन्निकर्ष को प्रमाण मानने पर सर्वज्ञ सिद्ध नहीं बाली गाय को भी साधकतम कारण मानना होगा । इस हो सकता। क्योंकि यदि सर्वज्ञ सन्निकर्ष द्वारा पदार्थों तरह कारणों का कोई प्रतिनियम ही नहीं रह जाएगा। को जानेगा, तो उसका ज्ञान या तो मानसिक होगा या सांख्य का इन्द्रियवृतिवाद इन्द्रियजन्य । मन और इन्द्रियों की प्रवृत्ति अपने विषयों सांख्यों की मान्यता है कि अर्थ की प्रमिति में इन्द्रियमें क्रमशः होती है, तथा उनका बिषय भी नियत है, वृत्ति ही साधकतम है, अत: उसी को प्रमाण मानना जबकि त्रिकालवर्ती ज्ञेय पदार्थों का अन्त नहीं है । सूक्ष्म, चाहिए । इन्द्रियां जब विषय के प्राकार परिणमन करती अन्तरित तथा व्यवहित पदार्थों का इन्द्रियो के साथ है तभी वे अपने प्रतिनियत शब्द प्रादि का ज्ञान कराती सन्निकर्ष नही हो सकता, अत: उनका ज्ञान भी नही हैं। इस प्रकार पदार्थ का सम्पर्क होने से पहले इन्द्रियों होगा। इस तरह सर्वज्ञ का प्रभाव हो जाएगा (मर्वार्थ का विषयाकार होना इन्द्रियवृत्ति है। वही प्रमाण है। पृ० ५७, तत्त्वा० ० ३६ न्यायकु० पृ० ३२)। योगदर्शन व्यासभाष्य में लिखा है
उपयुक्त दोषों के कारण इन्द्रियादि के सन्निकर्ष को 'इन्द्रियप्रणालिकया बाद्यवस्तुपरागात् सामान्यप्रमाण नहीं माना जा सकता।
विशेषात्मनोऽर्थस्य विशेषावधारणप्रधानावृत्तिः प्रत्यक्षम्।" जरन्नयायिकों का कारकसाकल्यवाद
-योगद० व्यासभा० पृ० २७ जरन्नयायिकों की मान्यता है कि अर्थ का ज्ञान किसी इन्द्रियवृत्ति की प्रक्रिया के विषय मे साख्यप्रवचनएक कारक से ही होता, प्रत्युत कारकों के समूह से भायकार:
भाष्यकार ने लिखा हैहोता है । एक दो कारको के होने पर भी ज्ञान उत्पन्न
"प्रत्रयं प्रकिया इन्द्रियप्रणालिकया अर्थसन्निकर्षण नही होता पार ममग्र कारका क रहन पर नियम स हाता लिंगज्ञानाविना वा प्रावो बुद्धः अर्थाकारा वृत्तिः जायते ।" है। इसलिए कारकसाकल्य ही ज्ञान की उत्पत्ति मे साधक
-सांख्यप्र. भा० पृ० ४७ तम कारण है । प्रतएव वही प्रमाण है । ज्ञान प्रमाण नहीं इन्द्रियवृत्ति की समीक्षा है, क्योकि वह ती फल है। फल को प्रमाण मानना बौद्ध, जैन तथा नैयायिक ताकिको ने सांख्यों का उचित नहीं है, क्योकि प्रमाण और फल भिन्न-भिन्न होते खण्डन किया है । बौद्ध तार्किक दिङ्नाग ने प्रमाणसमुच्चय है। न्यायमंजरीकार ने लिखा है
(१. २७) में, नैयायिक उद्योतकर ने न्यायवार्तिक (पृ० "अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धिं विदधती बोधा- ४३) मे, जयन्त भट्ट ने न्यायम जरी (पृ० १०६) मे तथा वोषस्वभावा सामग्री प्रमाणम् ।" -न्यायमजरी पृ० १२ जैन तार्किक प्रकलक ने न्यायविनिश्चय (१. १६५) में, समीक्षा
विद्यानन्द ने तत्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० १८७) मे, प्रभाचन्द्र कारकसाकल्य की उपयोगिता को स्वीकारते हुए भी ने न्यायकूमदचन्द्र (१०४०-४१) और प्रमेयकमलमार्तण्ड जैन दार्शनिकों ने विशेष रूप से इसका खण्डन किया है (पृ० १६) मे, देवमूरि ने स्याद्वादररत्नाकर (पृ०७२) (न्यायकू. पृ० ३५-३६, प्रमेयकमल० पृ० ७-१३)। मे तथा हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा (q. २४) मे इन्द्रियउनका कहना है ---
वृत्ति का विस्तार से निरास किया है। जिसका सक्षिप्त १. कारकसाकल्य ज्ञान की उत्पत्ति में कारण अवश्य सार यह है - है, पर अर्थोपलब्धि मे तो ज्ञान ही कारण है। इसलिए १. इन्द्रियवृत्ति अचेतन है, इसलिए वह पदार्थ को कारकसाकल्य को अर्थोपलब्धि मे माधकतम कारण नही जानने में साधकतम नही हो सकती। माना जा सकता।
२. इन्द्रियों का पदार्थ के प्राकार होना प्रतीति २. यदि परम्परा कारणों को ग्रर्थोपलब्धि में साधक- विरुद्ध है। जैसे दर्पण पदार्थ के प्राकार को अपने में तम कारण माना जाएगा तो जिस पाहार या गाय के दूध धारण करता है, वैसे श्रोत्र मादि इन्द्रिया पदार्थ के से इन्द्रियों को पुष्टि मिलती है, वह माहार तथा दूध देने माकार को अपने में धारण करती नहीं देखी जातीं।