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शान्तिवर्णीकृत प्रमेयकष्ठिका
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३. इन्द्रियवृति यदि इन्द्रियों से भिन्न है तो उसका ४. अर्थापत्ति से भी ज्ञातव्यापार सिद्ध नही होता इन्द्रियों से सम्बन्ध नही बनता और यदि अभिन्न है तो क्योकि प्रर्थापत्ति के उत्थापक अर्थ का साध्य के साथ सुप्तावस्था में भी इन्द्रिय व्यापार जारी रहना चाहिए। सम्बन्ध नही बनता । ___ इन कारणों से इन्द्रियवृत्ति प्रमाण नही है ।
५. प्रमाणो से सिद्ध न होने पर भी ज्ञातव्यापार का मीमांसकों का ज्ञातृव्यापार
अस्तित्व मानना उपयुक्त नहीं है। मोमांसक ज्ञातृव्यापार को प्रमाण मानते है । उनका बौद्धसम्मत-लक्षण कहना है कि ज्ञातृव्यापार के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं हो बौद्ध न्यायशास्त्र में प्रत्यक्ष-लक्षण की दो परम्पराए सकता। कारक तभी कारक कहा जाता है, जब उसमे देखो जाती है -पहली प्रभ्रान्त पद रहित और दूसरी क्रिया होती है । प्रात्मा, इन्द्रिय. मन तथा पदार्थ का मेल प्रभ्रान्त पद सहित । पहली परम्परा के पुरस्कर्ता दिङ्नाग होने पर ज्ञाता का व्यापार होता है और है तथा दूसरी के धर्म कीति । प्रमाणसमुच्चय (१.३) और वह व्यापार ही पदार्थ का ज्ञान कराने में कारण न्यायप्रवेश (पृ. ७) में पहली परम्परा के अनुसार लक्षण होता है। अतः ज्ञाता का व्यापार ही प्रमाण है
और व्याख्या है । न्यायबिन्दु (१. ४) और उसकी धर्मो(मीमासा इलो० १० १५१, शास्त्रदी० पृ० २०२)। तरीय प्रादि वृत्ति में दूसरी परम्परा के अनुसार लक्षण ज्ञातव्यापारवाद की समीक्षा
एव व्याख्यान है । शान्तक्षित ने तत्वसग्रह (का० १२१४) मीमांसकों की इस मान्यता का खण्डन वैदिक, बौद्ध में दूसरा सपरावा समर्थन किया है। धर्ममाति का तथा जैन सभी ताकिको ने किया है। वैदिक परम्पग में लक्षण इस प्रकार हैउद्योतकर ने न्यायवार्तिक (१० ४३) मे, वाचस्पति ने "प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम् ।" -न्यायवि. १.४. तात्पर्यटीका (पृ.१५५) में तथा जयन्तभद्र ने न्याय- निविकल्पक प्रत्यक्ष मंजरी (१० १००) में विस्तार से खण्डन किया है। अभ्रान्त पद का ग्रहण या प्रग्रहण करने वाली दोनो बौद्ध दार्शनिकों में सर्वप्रथम दिङनाग ने अपने प्रमाण परम्पगो मे प्रत्यक्ष को निर्दिवरपक माना गया है। समुच्चय (१. ३७) मे इसका खण्डन किया है । शान्त
बौद्धो का कहना है कि प्रत्यक्ष मे शब्द-संसृष्ट मर्थ का रक्षित प्रादि ने इसी पद्धति का अनुसरण किया है ।
ग्रहण सम्भव नहीं है, क्योकि प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण जैन परम्परा में अकलंक, विद्यानन्द (तत्त्वार्थश्लो.
है,और वह क्षणिक है । इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान निर्विकल्पक पृ० १८७, इलो० ३७). प्रभाचन्द्र (न्यायकु० पृ० ४२.
ही होता है।
क्षणभंगवाद ४५, प्रमेय० पृ० २०.२५), अभयदेव (सन्मति० १०
बौद्धो की इस मान्यता की पृष्ठभूमि में उनका दार्श५३४, हेमचन्द्र (प्रमाणमी० पृ. २३) तथा देवसूरि
निक सिद्धान्त क्षणभगवाद है । 'सर्व क्षणिकम्'-सब कुछ (स्याद्वादरत्नाकर पृ० ३२१) ने ज्ञातृव्यापार का विस्तार
क्षणिक है- इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्यक्ष जिस स्वसे खण्डन किया है । जिसका निष्कर्ष इस प्रकार है
लक्षण को ग्रहण करता है उसमे कल्पना उत्पन्न हो, १. ज्ञातव्यापार किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहाहाता इसके पर्व ही वह नष्ट हो जाता है। इसलिए वह सवि. इसलिए वह प्रमाण नही है ।
कल्पक नही हो सकता। २. प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञातृव्यापार सिद्ध नहीं होता। इन्द्रियज्ञान में तदाकारता का प्रभाव क्योंकि न तो ज्ञातृव्यापार का सम्बन्ध है और न मीमांसक बौद्धो का कहना है कि प्रथं में शब्दो का रहना स्वसंवेदन को मानते हैं।
सम्भव नही है और और न अर्थ शब्द का तादात्म्य ३. अनुमान प्रमाण से भी ज्ञातृव्यापार सिद्ध नही सम्बन्ध ही है । इसलिए प्रर्थ से उत्पन्न होने वाले ज्ञान होता, क्योंकि उसमे साधन से साध्य का ज्ञान रूप अनुमान को उत्पन्न न करने वाले शब्द के प्राकार का संसर्ग नही नहीं बनता।
रह सकता। क्योंकि जो जिसका जनक नहीं होता वह