SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१२. वर्ष २३ कि. ५-६ उसके प्राकार को धारण नही कर सकता। जैसे रस से अनुपयोगी है। जिस प्रकार मार्ग मे चलते हुए तृणस्पर्श मादि उत्पन्न होने वाला रसज्ञान अपने प्रजनकरूप प्रादि के का प्रनध्यवसाय रूप ज्ञान प्रनिश्चयात्मक होने से लोक प्राकार को धारण नहीं करता। इन्द्रियज्ञान केवल नील व्यवहार में उपयोगी नहीं है, उसी प्रकार निर्विकल्पक ज्ञान प्रादि अर्थ से उत्पन्न होता है, शब्द से उत्पन्न नहीं होता। भी अनुपयोगी है । अतएव वह प्रमाण नहीं हो सकता। इसलिए वह शब्द के प्राकार को धारण नही कर सकता। प्रमाण का फल इस प्रकार शब्द के प्राकार को धारण न करने के कारण जैन न्याय मे ज्ञान को प्रमाण माना गया है। इसवह शब्दग्राही नही हो सकता। जो ज्ञान जिसके प्राकार लिए अज्ञाननिवृत्ति को उसका फल माना है। प्राचार्य नहीं होता वह उसका ग्राहक नही हो सकता । प्रतएव समन्तभद्र ने लिखा हैनिविकल्पक ज्ञान ही प्रमाण है । "उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यावानहानधीः । निर्विकल्पक ज्ञान और लोक-व्यवहार पूर्वा वाज्ञाननाशो वा सर्वस्थास्य स्वगोचरे ॥" निर्विकल्पक ज्ञान में सविकल्पक ज्ञान को उत्पन्न -- प्राप्तमीमामा १०२ । करने की शक्ति है। प्रत: वह उसके द्वारा समस्त व्यव. केवल ज्ञान का फल उपेक्षा बुद्धि है। शेष मति प्रादि हारो मे कारण होता है। निविकल्प प्रत्यक्ष के विषय को ज्ञानो का फल हेय, उपादेय और उपेक्षा है । यह परम्परा लेकर ही पीछे के विकल्प उत्पन्न होते है। इसलिए निवि फल है । माक्षान् फल प्रज्ञान निवृत्ति है। प्राचार्य पूज्यकल्प प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। पाद ने सर्वार्थसिद्धि (१६१०) में इसका विस्तार से बौखों के सक्षण की समीक्षा विवेचन किया है । भट्ट अकलक ने लिखा है "प्रमाणस्य फलं साक्षात् सिद्धिः स्वार्थविनिश्चयः।" बौद्धो की इस मान्यता का बौद्धतर तक ग्रन्थों में -सिद्धिवि० १।३। विस्तार से खण्डन किया गया है । भामह ने काव्यालकर अर्थात् प्रमाण का साक्षात् फल अभीष्ट अर्थ के (५. ६. पृ.० ३२) और उद्योतकर के न्यायवार्तिक (१. निश्चय की सिद्धि रूप अज्ञान की निवृत्ति है। १. ४ पु० ४१) मे दिङ नाग के प्रत्यक्ष लक्षण तथा वाच. बाद के जैन दार्शनिको ने भी इसी दृष्टिकोण का स्पति मिश्र की तात्पर्यटीका (पृ० १५४), जयन्त भट्ट की प्रतिपादन किया है । शान्तिवर्णी ने प्रमाण के फल का न्यायमजरी (पु. ५२), श्रीधर की न्यायकन्दली विस्तार से विवेचन किया है। (१० १९०)प्रोर शालिकनाथ की प्रकरणपरीक्षा (पृ०४ ) जनेतर न्याय मे ज्ञान को प्रमाण का फल तथा ज्ञान मे धर्मकीति के प्रत्यक्ष-लक्षण की समीक्षा की गयी है। के कारणो को प्रमाण माना गया है। वात्स्यायन और जैन दार्शनिको ने दिङ्नाग तथा धर्मकीति दोनो के न्यायम जरीकार ने भी ज्ञान को प्रमाण मानने की स्थिति लक्षणो की समीक्षा की है। विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोक मे हेय, उपादेय और उपेक्षाबुद्धि को उसका फल कहा हैवार्तिक (पृ० १८५), प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० "यवा सन्निकरतदानानं प्रमितिः, यवा ज्ञानं तवा ४७) तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड (१० ४६) मे एव हेमचन्द्र ने हानोपावेयोपेक्षाबुद्धयः फलम्।"-वात्स्यायन भा० पृ० १७ प्रमाणमीमासा (पृ. २३) मे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का "प्रमाणतायां सामनपास्तज्ज्ञानं फलमिष्यते । विस्तार से खण्डन किया है। तस्य प्रमाणभावे तु फलं हानादिबुद्धयः ॥" निर्विकल्पक ज्ञान प्रनिश्चयात्मक होने से प्रप्रमाण -न्यायम० पृ० ६२। निर्विकल्पक ज्ञान प्रनिश्चयात्मक होता है । अनिश्च- प्रमाण पोर फल का भेदाभेव यात्मक ज्ञान को प्रमाण नहीं माना जा सकता। क्योंकि जैन न्याय मे प्रमाण और फल का कचित् भेदाभेद प्रमाण वही कहलाता हैं जो निश्चयात्मक हो। माना गया है। जैन दर्शन में प्रात्मा को ज्ञान रूप माना लोक-व्यवहार में साधक न होने से प्रमाण है तथा ज्ञान रूप होने से प्रमाण पोर फल दोनों रूप में निर्विकल्प ज्ञान प्रनिश्चयात्मक होने से व्यवहार में परिणमन करता है। प्रतएव एक प्रमाता की अपेक्षा
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy