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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
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सहने वालों के दृष्टात रूप से किया गया है। ऐसी कथाएँ हरिभद्रीय टीका से कुछ कथानक संग्रह कर पृथक से या दृष्टान्त अन्य सन्दर्भो में भी दिए गए हैं । दशवकालिक पुस्तक रूप में सम्पादित कर दिया है। भागमों में जो नियुक्ति में उदाहरण की [?] व्याख्या करते हुए महत्व कथानक निर्देश किए गए हैं उनका ब्योरा संगतभावे देने के उल्लेख [गाथा ६१ प्रादि मे] किए गए है जो लिखित के अतिरिक्त, हरिभद्र, शीलांक, शास्याचार्य, देवेन्द्र, नहीं तो कम से कम मौखिक कथानकों की परम्परा की मलयगिरि और प्रभयदेव जैसे टीकाकारों ने न केवल पूर्वता का निर्देश करते है। दूसरे संदर्भो [गाथा ७७, प्राचीन टीकामों मे ही सहायता ली है अपितु बाह्य ८१,८७, १६२, २३६ प्रादिमें या तो उचित नाम ही साहित्य मे भी, और इसका परिणाम यह हमारे कि दे दिए गए हैं या प्रमुख शब्द घोष [कैववर्ड स] कि उनकी टीका भिन्न-भिन्न परिणाम की भोर भनेक विषयों जिनका अर्थ तभी समझा जा सकता है जब कि उनके की जैन कथानों का संग्रह या भण्डार ही बन गई है। सम्बन्ध की कथामों का पूरा-पूरा परिचय हो । नन्दी सूत्र इम दष्टि से प्राकृत की ५४० गाथा का ग्रन्थ उपदेशमामा में भी कुछ गाथाएँ हैं, कदाचित रूढ परम्परागत. जिनमे का नाम उल्लेख किया जा सकता है कि जो धर्मदास गणि सेल-घण जैसे दृष्टान्तिक वाक्य, शिष्यों के गुण-दोष रचित है और जिसे महावीर का समकालिक होने को भी व्यक्त करने के लिए, की सूची दी गई है। और इनके कहा जाता है । सूक्ष्मदर्शी विद्वानगण इस ग्रन्थ को उतना कारण जटिल कथानक भी देना आवश्यक हो गया है। प्राचीन समय देने को अभी तक तैयार नहीं हैं। सारइन कथानकों के प्राचीन प्राधारों का अभी तक हमें स्पष्ट गभित और संक्षेप में प्रोपदेशिक वातें कहने के सिवा भी रूप से कोई पता नही है। परन्तु कुछ उल्लेखों से ऐसा यह ग्रन्थ ऐसे जीवन-घटना उल्लेखों की एक प्रसन्न खान मालूम पडता है कि कुछ कथानक तो दृष्टिवाद में जो ही है कि जिनमे से कितनी ही पहन्नयों में पहले से ही कि आज अप्राप्य है, थे। फिर हाथी के जैसे कथानक का मिलती हैं। बहुतों ने इससे अपने अन्यों में उद्धरण दिए विवरण मरणसमाहि पइन्नय [गाथा ५१२-२०] मे भी हैं और जहाँ तक मैं जानता है. हवीं सदी ईसवी से अब दिया हुआ है । मावश्यक नियुक्ति भी एक विशेष महत्व तक इस पर अनेक टीकाएं रची जा चुकी है। यह ग्रंथ का शास्त्र है या सुप्रसिद्ध प्राचार्यों को लिखी विस्तृत संग्रह-ग्रन्थ सा लगता है और पाधारभूत गाथाएं निजुत्ति टीकामों से उसे विशेष महत्व प्राप्त हो गया है। इसके और पइन्नयों के अनुसारी प्राचीन जैन साहित्य के स्तर मूल पाठ में कथाएं प्रवेश करने के लिए अनेक अवसर को भी हो सकती हैं। प्राप्त होते हैं जैसे कि अनुयोगों के नियोजन में, बुद्धियों दिगम्बरों ने अर्घ-मागधी प्रागमों को अधिकारित रूप के दृष्टान्तों में, ताकि मूल पाठ का यथार्थ वाचन सम्भव से अपने लिए स्वीकार नहीं किया है। यद्यपि प्राचीन हो"। इसीलिए घृणि, भाष्य पोर टीका प्राकृत और प्रागम नष्ट हो चुके, फिर भी दिगम्बर परम्परा ने भागों संस्कृत दोनों ही के कथानकों से भरी हुई हैं, मौर इनकी के विभागों सहित उनकी सूची और विषय प्रवश्य ही सख्या चौका देने जितनी अधिक है"। लायमेन ने दशवं. सुरक्षित रखी है । इसका नन्दीसूत्र में दिए विवरण पौर कालिक-निर्यक्ति के कथानकों को संक्षेप में पहले ही उपलब्ध प्रर्ध-मागधी शास्त्र एवम् उनके वर्गीकरण के प्रकाशित कर दिया है। पौर प्रावश्यक चणि और उसकी साथ तुलना करना मनोरंजक है। नन्दीसूत्र की गिनती
और दिगम्बर ग्रन्थों में प्राप्त वर्गीकरण, दोनों में ही. २५ श्री विशेषावश्यक, गुजराती अनुवाद सहित, भाग १.
उपांग विभाग का नहीं पाया जाना और उनमें कुछ समान २, पागमोदय समिति, बंबई १९२४-२७, पृष्ठ भाग
बातों का होना दिगम्बर परम्परा की यथार्थताको वल्लभी १, ५०६, भाग १, ५१३ प्रादि। २६ बृहत्कल्पसा जिसके कि पांच भाग अब तक प्रकाशित २७ दशवकालिकसूत्र-एण्ड-नियुक्ति जग्गी एमजी,
हो चुके हैं [भावनगर, १९३३-३८], दृष्टान्तिक ४६, लपजिग १८९२; बीए प्रावश्यक पर जहलुंगन, कथामों में बहुत सम्पन्न हैं।
लेपजिग १८९७ ।