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जैनों में सती प्रथा चम्पालाल सिंघई, 'पुरलर'
जैनधर्मकी दष्टि से पति के शव के साथ पनि का संवत् से तात्पर्य संवत, पस्विन से माश्विन, प्रयोतक से अग्निदाह मशानजन्य मारम-धात है। परन्तु राजपूतों तथा अग्रवाल, मा...से भार्या, सहगमन से सती होना है। अन्य जातियों के निकट संपर्क में इस प्रथा ने जैन समाज उक्त शिला लेख को पं० फूलचन्दजी के साथ पढ़ में भी प्रवेश प्राप्त कर लिया था। मध्यकाल में अनेक कर लेखक का भ्रम दूर हो गया और अनुमान किया कि जैन महिलाएं सती हुई।
स्तम्भ सती के किसी चबूतरे से जिनेन्द्रमूर्ति देखकर कभी माधुनिक काल में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल किसी ने जैन मन्दिर में गाड़ दिया होगा। सार्ड विलियम बेंटिंग ने सन् १८२६ ई० में ७ दिसम्बर के जैनों में सती होने का यह प्रबल प्रमाण प्राप्त हुमा दिन सतीप्रथा को नियम विरुद्ध घोषित किया। किन्तु किन्तु एक शिलालेख के बल पर तो सती प्रथा के रूढ़िवश कहीं-कहीं सती होने के समाचार मिलते रहते है। मस्तित्व की घोषणा नहीं की जा सकती थी। भाजकल परन्तु जैन समाज में तब से इस प्रथा का लोप हो गया मध्यप्रदेश और राजस्थान में भट्टारकों पर शोधकार्य हाथ और एक भी सती होने का समाचार नहीं मिला। में है । इसी क्रम में लेखक को प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ पौर
इन पंक्तियों के लेखक की जन्मभूमि चंदेरी (वर्तमान इतिहासविद् श्री मगरचन्द्र नाहटा द्वारा सम्पादित बीकामध्यप्रदेश, भू०पू० ग्वालियर राज्य के गुना जिले में) है नेर जैन लेख संग्रह (प्रथमावृत्ति, वीराब्द २४६२) पढ़ने जहां चौबीसी मन्दिर है, जो भारत भर में विख्यात है का अवसर मिला। इस संग्रह में २६१७ भभिलेख बीकाप्रतिवर्ष उत्तर भारत तथा दक्षिण के सैकडों तीर्थयात्री
नेर राज्य के और १७१ मभिलेख जैसलमेर राज्य के दर्शन लाभ लेते हैं।
संग्रहीत हैं। प्रारम्भ में नाहटा जी की भूमिका तथा डॉ.
वासुदेवशरण अग्रवाल का प्राक्कथन है। इस मन्दिर में बचपन से एक स्तम्भ देखते रहे जिस
नाहटा बंधुओं (मगरचंद्र-भवरलाल) ने लिखा है पर एक अभिलेख भी है परन्तु उसे पढ़ने की कभी चेष्टा
(पृ०६४)-"मोसवाल जाति वस्तुतः क्षत्रिय कौम है। नहीं की। स्तम्भ का कुछ भाग भूमिगत है। सबसे ऊपर
उनकी वीर महिलायें देहमूर्छा को त्याग कर शील रक्षा छोटीसी जिनमूर्ति उत्कीर्ण है। जिसके नीचे एक पलंग
के निमित्त पतिदेह के साथ हंसते-हंसते प्राण न्योछावर पर कोई लेटा है। बगल में एक नारी की मूर्ति है, जिसके
कर दें तो प्राश्चर्य ही क्या है।"......"सती स्मारकों में हाथ पलंग पर बैठे हुए नर के चरणों पर हैं। लेखक ने
हमने सबसे बड़ा स्मारक झंझण में देखा है जो बहुत पलंग पर बैठे हुए नर को कभी ध्यान से नही देखा और
विशाल स्थान पर है। हजारों मील से यात्री लोग भाया उसे जिनमाता तथा नारि को देवी अनुमित करता रहा।
करते है । यह राणी सती अग्रवाल जाति की है।" इस वर्ष वाराणसी निवासी पं० फूलचन्द्रजी सिद्धातशास्त्री
"बीकानेर में जितने सती स्मारक प्राप्त हैं, सबमें (जो परवार जाति का इतिहास लिख रहे हैं) को लेकर
घुड़सवार पति और उसके समक्ष हाथ जोड़े स्त्री चंदेरी गया । मन्दिर के मूर्तियों के लेख लिये । उक्त
खड़ी है।" स्तम्भ का लेख लिया जो इस प्रकार है
"युगप्रधान जिनदत्तसरि जी के समय में भी सती "सिद्धि; सवत् १३५० अस्विन सुदि ४ शनौ प्रमा[ग्रो)- प्रथा प्रचलित थी। पद्रावलियों में उल्लेख मिलता है कि तक सा० नागदेव सुत धमो...मणि सहगमनं बभूव..." जब वे झुजणू पधारे श्रीमाल जाति की एक बालविधवा