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________________ जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और उसका साहित्य डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. पी. एच. डी. राजस्थानी भाषा राजस्थान की अपनी भाषा है। (सूर्यमल्ल) जैसी महत्वपूर्ण कृतियो का निर्माण हुमा जिन उसका अपना स्वरूप एव अपना ही विशाल भण्डार हैं। पर कोई भी देशवासी गर्व कर सकता है। इस साहित्य के अपभ्रश के पश्चात् देश मे जिन भाषाओं का विकाश हुमा निर्माण में सैकडों राजस्थानी विद्वानों ने अपने जीवन का उनमें राजस्थानी भाषा का नाम विशेषतः उल्लेखनीय अमूल्य समय समर्पण किया। काव्य के जितने अंगों पर है। १५ वी शताब्दी तक यद्यपि राजस्थानी एवं गुजराती राजस्थानी साहित्य लिखा गया किसी भी प्रादेशिक भाषा भाषाएं एक मां की दो पुत्रियों के समान एक ही घर में में नही लिखा जा सका। काव्य, चरित, रास प्रादि के विकसित होती रही लेकिन युवा होने पर एक ने राजस्थान अतिरिक्त फागु, वेलि, ढाल, चौढाल्या, चौपाई, दोहा, एव दूसरी ने गुजरात को अपना घर बनाया। इस प्रकार सतसई प्रादि के रूप में खूब साहित्य लिखा गया। वास्तव राजस्थानी भाषा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व प्रारम्भ में साहित्य के विभिन्न प्रगों और उपांगों को पल्लवित हा। लेकिन इसके बाद भी दो बहिनों के समान एक एव विकसित करने का श्रेय राजस्थानी भाषा के कवियों दूसरे से मिलती रही और अपना प्रभाव स्थापित करती को दिया जाना चाहिए। रही। राजस्थानी भाषा ने अपने प्रदेश के सास्कृतिक, लेकिन राजस्थानी भाषा का विशाल साहित्य होते साहित्यिक एव नैतिक धरातल को विकसित करने में हुए भी अभी तक इस साहित्य की जन साधारण को जानअपना महत्वपूर्ण योग दिया और इस कार्य मे जन साधा. कारी नही मिलना राजस्थानियों के लिए तो कम से कम रण का उसे अपूर्व सहयोग मिला। जनता ने उसका गौरव की बात नहीं है। विश्वविद्यालयों स्तर तक पढ़ने स्वागत किया और जन कवियो ने उसे अपने काव्य रचना । वाले प्रत्येक विद्यार्थी को राजस्थानी भाषा की प्रमुख का माध्यम बनाया। राजस्थानी भाषा वीर रस प्रधान रचनामों का परिज्ञान होना ही चाहिए, चाहे वह विद्यार्थी रचनामों के लिए श्रेष्ठ भाषा मानी जाने लगी। साथ ही किसी भी फैकल्टी में शिक्षा क्यों नहीं ले रहा हो। राजअध्यात्म परक साहित्य भी उसमे खूब लिखा गया। स्थानी भाषा की सैकड़ों रचनायें राजस्थान के जैन भडारों बृज, अवधी, मालवी एव मेवाती जैसी भाषामों को उसने में सुरक्षित हैं। यद्यपि गत २० वर्षों से राजस्थानी साहिप्रभावित किया और अपनी लोकप्रियता एवं विशालता की त्य को प्रकाश में लाने का किंचित प्रयास किया गया है इन पर गहन छाप छोडी। वैष्णव एवं जैन दोनो ही लेकिन इस साहित्य की विशालता को देखते हुए उसे कवियों ने उसमे अपना विशाल साहित्य लिखा । और प भार पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। उसके विकास में अपना पूर्ण योग दिया। जैन साहित्य के समान जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय राजस्थानी भाषा को राज्य भाषा होने का गौरव भी एवं उसका साहित्य भी जनसाधारण के परिचय के बाहर मिला। राजामों द्वारा इसे अभूतपूर्व राज्याश्रय मिला। था। विष्णोई सम्प्रदाय में सैकड़ों कवि होने पर भी यह राजस्थानी भाषा के कवियों को राज दरबार मे पूर्ण साहित्य अभी तक उपेक्षित रहा और राजस्थानी साहित्य सम्मान मिला और उसे लोकप्रिय बनाने में सहयोग प्रदान के इतिहास मे उसे उचित स्थान भी प्राप्त नही हो सका। किया गया। इस भाषा में राम सीता रास (ब्र.जिनदास) अभी डा. हीरालाल माहेश्वरी प्राध्यापक राजस्थान ढोला मारू ग दोहा (कुशल लाल) कृष्ण रुक्मणी बेलि विश्वविद्यालय जयपुर ने "जाम्भोजी, विष्णोई सम्प्रदाय (पृथ्वीराज) कान्हडदे प्रबन्ध (पद्मनाभ) वीर सतसई एवं साहित्य" इस नाम से शोध ग्रंथ का प्रकाशन कराया
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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