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१३८, वर्ष २३ कि. ३
अनेकान्त
प्रन्थ की रचना चालुक्यवंशीय राजा सिद्धराज के उत्तरा- के प्रमात्य पृथ्वीपाल का परिचय कराया है।' पृथ्वीपाल धिकारी राजा कुमारपाल के राज्य में प्रणहिलपुर पाटन' प्राग्वाट जाति के भूषण थे। सरस्वती द्वारा उन्हे वर नामक नगर में संवत् १२१६ के कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी प्राप्त था। उन्होंने प्रबुंदाचल (पाबू) मे मंत्री बिमलशाह सोमवार के दिन अश्विनी नक्षत्र में सम्पन्न की है। द्वारा बनवाये हुए मन्दिर के सामने 'मडप' बनवाया था।
प्रनहिलवाड़-भिन्नमाल के पतन के बाद सदियों और अणहिल्ल पाटन मे वीरनाथ और अरहनाथ के पूर्व वि० सं०८०२ (सन् ७४६) ईस्वी मे चावड़ा वश मन्दिर में भी मंडप' बनवाया, एवं त्रिजग तिलक नामक के वनराज द्वारा उत्तर गुजरात की सरस्वती नदी के तट शान्तिनाथ जिन भवन का निर्माण भी कराया था। और पर स्थित लाखाराम नामक प्राचीन गांव में प्रनहिलवाड़ चदप्पह चरिउ, नेमिनाह चरिउ का भी निर्माण कराया बसाया गया था। इसका कोई प्राचीन अभिलेख या और उनकी प्रतियां भी लिखवाई। इस तरह पृथ्वीपाल सिक्का उपलब्ध नहीं है। प्रबन्ध चिन्तामणि में इन्हें लुटेरा ने राज्य कार्य करते हए भी अनेक धार्मिक कार्यों का घोषित किया गया है। सन् ९४२ ईस्वी में अनहिलवाड़े निर्माण कर जीवन को सफल बनाने का यत्न किया था। के पास-पास इनका राज्य समाप्त हो गया था । और कवि परिचय-प्राचार्य हरिभद्र विक्रम की १३ वी मूलराज, चावडा शासक सामन्त सिंह के भागिनेय ने अपने शताब्दी के विद्वान थे। वे बड गच्छीय जिनचन्द्र सूरि के मामा को मारकर राज्य हस्तगत किया था। उस समय प्रशिप्य प्रौर श्री चन्द्रसरि के शिष्य थे। कर्ता ने अपनी वह छोटा-सा राज्य था; किन्तु मूलराज दीर्घदर्शी सेनानी
रचनामों में गुरु का प्रादर के साथ उल्लेख किया है। था, उसने चावडों से प्राप्त इस छोटी-सी रियासत को गुज
कहा जाता है कि कवि ने चतविशति तीर्थंकरो के चरित रात राज्य का रूप दे दिया था, उसीने और अनेक राजानों लिखे थे किन्तु वर्तमान में तीन ही चरित उपलब्ध है। को जीत कर उसे समृद्ध बनाया था और बारहवी शताब्दी
चन्द्रप्पह चरिउ की पाटण के भडार मे सवत् १२२३ की में तो मनहिलवाड सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र बन
लिखित प्रति विद्यमान है। अतएव उसका समय उसके गया था। सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल के समय
मासपास का हो सकता है और नेमिनाह चरिउ स० वह अपनी उन्नति की चरम सीमा को पहुँच गया था।
१२१३ के कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी सोमवार के दिन उस समय वह विशाल गुर्जर राज्य का केन्द्र बन गया
अश्विनी नक्षत्र मे बनाकर समाप्त किया था। इन दोनो था जिसे कुमारपाल ने और भी उच्च शिखर पर पहुँचाने
चरित ग्रन्थो की श्लोक सख्या ५०३२ श्लोक प्रमाण बतका यत्न किया था, उसका विस्तार दक्षिण मे कोकण,
लाई गई है। मल्लिणाह चरित कब रचा, यह कुछ ज्ञात उत्तर में राजपूताना, पश्चिम मे कच्छ और सौराष्ट्र,
नहीं हो सका। कवि का समय विक्रम की १३वी शताब्दी पश्चिमोत्तर में सिंघ, एवं पूर्व मे मालवा तक हो गया था। श्वेताम्बर समाज का तो यह गढ़ था ही। वहाँ अनेक कवि की अपनी सभी रचनाए सुन्दर और मनमोहक जिन मन्दिरों का निर्माण, विशाल शास्त्र भण्डार और है। पाठकों को उनका अध्ययन करना चाहिए । भारतीय हेमचन्द्रादि प्राचार्यों के साहित्य निर्माण का केन्द्र स्थल था। विविध साहित्य के अध्ययन से बुद्धि परिष्कृत और तुल
ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति महत्वपूर्ण है । इसमें अनेक नात्मक साहित्य के निर्माण में सहायक होती है। ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख करते हुए राजा कुमारपाल
१. जयसीह एव सिरि कुमरवाल एवा णिदं तिलयाणं । १. कुमर वालहनिवहरज्जम्मि अणहिल्लवाडइ। नयरि
सिरि पुहइवालमंती अवितह नामो इमो विहिम्रो । मनणु सुयण बुहमणह संगमि ॥ सोलुत्तर बारसई १२१६ कत्तियम्मितेरसि समागमि । प्रस्सिणि रिक्खि- निरुवम सरस्सइवर पहाव उवलद्ध वंछियत्थस्स ।
सोमदिणि सुप्पवित्ति लग्गम्मि। भने वर्ष १७ पवितह अभिहाणस्स सिरि पुहई वाल सचिवस्स ।। कि०५, पृ० २३२ ।
-केटे लोग पाटन भडार, पृ० २५३, २५७ ।