________________
१४०, वर्ष २३, कि०३
अनेकान्त
है। यह शोध ग्रंथ दो भागों में प्रकाशित हुआ है और ४०८ सन्दर्भ ग्रन्थों का परिचय दिया गया है। दूसरे इसके लेखन के उपलक्ष में डा. माहेश्वरी जी को डी.लिट. अध्याय में जाम्भोजी साहित्य पर अब तक किये गये कार्य की सर्वोच्च साहित्यिक उपाधि प्राप्त हुई है। अपने इस की समीक्षा की गई है। तीसरे अध्याय मे जाम्भोजी शोध प्रबन्ध के माध्यम से लेखक ने एक ऐसे साहित्य को के समय विक्रम की १६वी शताब्दी तक मरू प्रदेश की प्रकाश में लाने का भागीरथ प्रयास किया है जो अभी तक राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक गतिविधियो का परिअप्रकाशित था। प्राज महाकवि तुलसीदास, सूरदास, चय दिया गया है। चौथे अध्याय मे कालक्रमानुसार कबीरदास एवं मीरा पर कितने ही शोध प्रबन्ध लिखे जाम्भोजी का जीवन वृत्त दिया गया है। यह प्रथम प्रवजा रहे हैं और घुमा फिरा कर उन्हीं तथ्यों को तोडा- सर है जब राजस्थान के इस सत पर इतना प्रामाणिक मरोडा जाता है लेकिन किसी विलुप्त, अज्ञात एवं अप्र- एव विस्तृत परिचय लिखा गया है। जाम्भोजी के समय काशित साहित्य को प्रकाश में लाना एक विशेष महत्व । में ही उनके द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय से अन्य धर्म वाले भी रखता है और डा० माहेश्वरी जी का इसी दृष्टि से यह प्रभावित होने लगे थे इनमे मुहम्मदखा नागौरी, बादशाह प्रयास अत्यधिक प्रशंसनीय है।
सिकन्दर लोदी, कर्नाटक के नवाब शेख सद्दी, सुल्तान का राजस्थान में होने वाले महात्मानों में जाम्भोजी का सघारी मुल्ला, जैसलमेर का रावल जैतसी, मूला पुरोहित नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। वे विश्नोई सम्प्रदाय के के नाम उल्लेखनीय है। पांचवे अध्याय मे जाम्भोजी के प्रवर्तक थे। इनके द्वारा प्रवतित यह सम्प्रदाय प्राज भी दर्शन और अध्यात्म पर प्रकाश डाला गया है । जाम्भोजी राजस्थान का विशिष्ट एवं जागरूक सम्प्रदाय है। न केवल एक विष्णोई सम्प्रदाय के प्रवर्तक ही थे किन्तु जाम्भोजी का जन्म सवत् १५०८ में पीपासर : नागोर : अपने समय के उच्च दार्शनिक भी थे। छठे अध्याय में के प्रतिष्ठित राजपूत परिवार में हरा था। वे आजन्म चुनी हुई सात हस्तलिखित प्रतियो के आधार पर लेखक ब्रह्मचारी रहे। संवत् १५४२ मे इन्होंने सम्भारथल नामक न जाम्भवाणी का पाठ सम्पादन किया है। सन्त साहित्य एक रेत के टीले पर बैठ कर विष्णोई सम्प्रदाय का प्रवर्तन के प्रसिद्ध लेखक एवं विद्वान श्री पुरुषराम चतुर्वेदी के किया और सं० १५९३ में ५५ वर्ष की प्राय में वहीं पर शब्दों मे शोध ग्रन्थ का यह अध्याय सबसे महत्वपूर्ण है । स्वर्गवासी हए । जाम्भोजी का राजस्थान ही प्रमुख कार्य- सप्तम अध्याय में विष्णोई सम्प्रदाय का विस्तृत रूप में क्षेत्र रहा। वे अपना प्रवचन ठेठ मरूभाषा : मारवाडी : परिचय प्रस्तुत किया गया है। में देते थे। इनकी वाणी को जम्भवाणी कहा जाता है
आठवे अध्याय में विष्णोई सम्प्रदाय के कवियों एव जिसका दूसरा नाम सबदवाणी भी है। इनका कहना था उनके साहित्य का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है । कि जिस प्रकार तिल के भीतर तेल रहता है तथा फूलों इसम १२९ अज्ञात कावया एव उनक में सुगन्ध समाती रहती है उसी प्रकार पाच तत्वो के का परिचय देकर डा० माहेश्वरी ने हिन्दी जगत को सहज अन्तर्गत प्रात्मा का प्रकाश हा करता है। जैसी खेती की ही में महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध करा दी है। ऐसे विद्वानो जाती है वैसी ही फसल पैदा होती है। उन्होने बहत ही में उदोजी नैण : सवत् १५०५-६४ : मेहोजी गोदरा: स्पष्ट शब्दों में कहा है कि पहिले स्वयं करके दिखलाना १६३०।१७३६ : सुरजनराय पूनिया : १६४०।१७४८ : चाहिए और फिर दूसरों से उसके लिए कहना चाहिए। प्रादि के नाम उल्लेखनीय है । पुस्तक के अन्तिम अध्याय कोरे प्रादों की प्रशसा में लीन रहना और उन्हें अपने में विष्णोई साहित्य के महत्व एव उसकी भारतीय साहित्य आप व्यवहार में न लाना कोरा ढोंग है।
की देन पर प्रकाश डाला गया है। डा. माहेश्वरी जी ने 'जाम्भोजी विश्णोई सम्प्रदाय इस प्रकार डा० माहेश्वरी ने 'जाम्भोजी विष्णोई और साहित्य' शोध ग्रन्थ को तीन खण्डों में विभाजित सम्प्रदाय और उसके साहित्य' पर जो खोजपूर्ण प्रकाश किया है जिसमें नौ अध्याय हैं। प्रथम अध्याय मे कुल
[शेष पृ. ४२ पर]