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२५६, वर्ष २३, कि० ५-६
भनेकान्त
सभी के विशेष ज्ञान के लिए प्रवान्तर भेदो (कर्मप्रकृतियों) नम्, १२. क्षीणकषाय (वीतरागछयस्थ) गुणस्थानम्, का विवरण भी दे दिया गया है ।
१३. सयोगकंवलिगुणस्थानम्, १४. प्रयोगकेवलिगुणस्थानम् । उपयुक्त बन्धहेतुभून कर्मों का प्रास्रव जब तक प्रात्म इन गुणस्थानों में सम्यक्त्व से युक्त (चतुर्थगुणस्थाप्रदेशों में होता रहता है तब तक यह कर्म निरन्तर बंधते निक) 'श्रावक, पञ्चमगुणस्थानिक 'देशविरत', षष्ठम रहते है । किन्तु पात्मा स्वभाव मे प्रतिविशुद्ध और निर्मल
और सप्तम स्थानिक 'विरत', तथा अष्टम से एकादश तक है इसलिए जब वह अपने इम स्वरूप को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होता है तो वह इन बन्धहेतूमो के 'क्षयक', त्रयोदशतमस्थानिक जिन' (सयोगकैवलि), एवं विनाशकहतुओं का प्राश्रय ग्रहण करने लगता है । और चतुदशतमस्थानिक भी 'जिन' (किन्तु प्रायोगकाल) जब उसे यह ज्ञान होता है कि इन-इन कर्मों से बन्धन का
सज्ञामो से अभिहित होते है । इस प्रकार कर्मों के क्रमशः मानव तब होता है वह उनके निरोष के उपाय अपनाने
उपशम एव भय से अन्त मे केवलित्व को प्राप्त कर लेने लगता है इन्ही उपायों को जैनाचार्यों ने 'सवर' की सजा
पर जीव ससार मे तब तक ठहरता है जब तक कि उसको दी है । बन्धहेतुमो के मास्रव को जिस प्रकार 'द्रव्य' और
'निर्वाण' (सासारिक शरीर की निवृत्ति) नहीं प्राप्त होता 'भाव' भेद मे दो प्रकार का माना है। उसी प्रकार उन
है। तभी वह 'मोक्ष' प्राप्त करके लोक के अग्र भाग मे उन मिथ्यादर्शनादि प्रास्त्रवो के निरोधो को भी उपयुक्त
स्थित होकर 'जीव' की चरमोत्कर्षता का प्रमाण बनता है। दो भेद रूप माना है। जिसमे भवान्तरप्राप्ति रूप ससार
'मोक्ष' क्या है ? इसकी व्याख्या करते हुए जन दार्शका निरोध 'भावसवर' तथा इस निरोध से पाने वाले
निको ने कहा है कि-'जीव का समस्त कमों से छुटकारा
प्राप्त करना (कृत्स्नकर्मविप्रयोग.) ही 'मोक्ष है। चीक कर्मों का निरोध 'द्रव्यसबर' कहा गया है। इस प्रकार
प्रात्मा अनादि काल से ही बन्ध को प्राप्त करते हुए पार. निरोध (मवर) के माध्यम से क्रमपूर्वक जब जीव अपने
तव्य को अनुभव करता रहता है इसलिए 'मोक्ष' के प्रति समस्त प्रागत कर्मों को भी विनष्ट कर चुकता है तभी वह
उसकी प्रवृत्ति, और 'मोक्ष की प्राप्ति ही 'मोक्ष' की सत्ता अपने शुद्ध वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करके सिद्ध' कह
(सदभाव) को सिद्ध कर देनी है । जैनेतर दार्शनिको लाने में समर्थ होता है । इस बन्धविनाश के पूरे समय को
ने 'मोक्ष प्राप्ति' का कारण 'तत्तत् पदार्थों के ज्ञान' को कुछ विशिष्ट श्रेणियो में विभाजित किया गया है, जिनके
ही माना है, किन्तु जैनाचार्यों ने इस ज्ञान की परिपक्वता नाम से ही उस श्रेणी में ही स्थित जीव के कितने को
के लिए इससे पूर्व उन-उन पदार्थों के प्रति सच्ची श्रद्धा'
ही का किस प्रवधि (सीमा) तक विनाश हो गया है । इसका
(सम्यग्दर्शन) तथा दर्शनपूर्वक होने वाले ज्ञान की चरिशान हो जाता है।
नार्थता के लिए ज्ञानपूर्वक प्राचरण' (सम्यक्चारित्र) को सासारिक जीव की जब से कमों के विनाश की प्रक्रिया भी मोक्षप्राप्ति के लिए परमावश्यक माना है। इस प्रकार प्रारम्भ होती है, तब से सिद्धत्व प्राप्ति तक कुल १४ इन तीनो को चरमपरिणति का सयुक्तरूप ही मोक्षमार्ग श्रेणियों निर्धारित की गई है। वे है -१. मिथ्यादष्टि- के रूप में मानकर अन्य दार्शनिको के ज्ञान मात्र को मोक्षगुणस्थानम्, २. सासादनसम्यग दृष्टिगुणस्थानम्. ३. सम्यङ्- मागं मानने की अपूर्ण पद्धति को पूर्णता प्रदान करने का मिथ्याष्टिगुणस्यानम्, ४. प्रसयतमम्यग्दृष्टिगुणस्थानम्. श्रेय इमी दर्शन को है। 'मोक्षमार्ग' के प्रमुख तीन क्रम ५. सयतासयतगुणस्थानम्, ६. प्रमत्तसयतगुणस्थानम्, २९ जैनागमो में पाए जाते है जिनका विशेष विवरण यथा७. प्रप्रमत्तसयतगुणस्थानम्. ८. अपूर्वकरण (उपशमक्षरक) प्रसङ्ग प्रबन्ध मे प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही जब गुणस्थानम्, ६. अनिवृत्तिकरण (बादरोपशमकक्षपक) मोक्ष के स्वरूप का विवेचन जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित गुणस्थानम, १०. सू०मसाम्पराय (उपशमक्षपक) गुण- किया गया तो उन्होंने इन बातो का स्पष्टतः खण्डन किया स्थानम्, ११. उपशान्तकषाय (वीतरागछपस्य) गुणस्था- है कि मोक्ष मे 'दीपक के निर्वाण की तरह मात्मा का भी