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जैन दर्शन में पात्म-द्रव्य विचार
२५७ निर्वाण (समाप्ति) हो जाता है, या 'ज्ञानादि गुणों का है। उपनिषदों में प्रात्मा के विभिन्न रूपों के सूक्ष्म सर्वथा उच्छेद हो जाता है। बल्कि उन्होने यह स्पष्ट किया विश्लेषण के माध्यम से प्रात्मा और जगत् दोनों के ज्ञान है कि मोक्ष में न तो 'प्रात्मा' (जीव) का ही विनाश होता को प्रावश्यक बतला कर अनेकता में एकता के समन्वय है और न ही कर्म पुदगलों का विनाश होता है, क्योंकि ये का (जीवन की विभिन्न धारामों के मोक्ष में विलय का) दोनों ही द्रव्य-दृष्टि से नित्य है। इसलिए इनका सर्वथा सुन्दर प्रतिपादन किया गया है।
नैयायिकों ने प्रात्मा को मोक्ष में भी मन के साथ विनाश नहीं हो सकता। मोक्ष में जो प्रात्मा के चतुर्दिक कर्मपुद्गल बधे हुए (सश्लिष्ट) थे, उनकी स्थिति प्रात्मा के
'स्वरूप योग्यता से युक्त माना है जिससे यदि वहां पर समीप से सर्वथा समाप्त हो जाती है। इसीलिए प्रात्मा
भी किसी तरह वे प्रावश्यक साधन प्रात्मा को प्राप्त हो पुन: अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। इस
जाएं जो जीवात्मा ससार मे प्राप्त करता रहता है, तो प्रकार मोक्ष का सरल अर्थ है-प्रात्मा और कर्मपुद्गलो
इन दोनो मे कोई भी अन्तर न रह जाय । इसी प्रकार का जो सम्मिलित रूप (जीव) था उसमे से कर्मपृद्गल
साख्य का पुरुष भी विवेक बुद्धि (भेद-बुद्धि) को प्राप्त पृथक हो गए और पात्मा पृथक हो गया। यही पात्मा
करके कैवल्य को प्राप्त करता है। यही अशेष दुखों की की स्वतन्त्रता, है, यही कृत्स्नकर्मों का विप्रयोग है जोकि
प्रात्यन्तिक निवृत्ति है। किन्तु कैवल्य प्राप्ति के बाद भी मोक्ष के लक्षण रूप में माना गया है। इस प्रकार यह
उसको प्रकृति का द्रष्टा मानने पर यह भी मानना पड़ेगा जीव पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप के प्रति श्रद्धालु एवं
कि उसको सत्वगुण से वहां पर भी पृथकत्व प्राप्त नही जिज्ञासु होता हुआ उनके ज्ञानानुरूप अपना माचरण करके
हुअा। अन्यथा वह प्रकृति का द्रष्टा नही हो सकेगा। ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । किसी भी एक के
मीमासक का पात्मा एक तो जड़रूप है, उस पर भी प्रभाव में यह सम्भव नही होता। दूसरे शब्दों में हम इस
इनके यहाँ स्वर्ग से भिन्न मोक्ष नहीं है। इससे मीमांसकों बन्ध व मोक्ष को (कृत्स्नकर्म विप्रयोग को) 'पात्मा के अपने
का विवेचन पारलौकिक न होकर ऐहलौकिक ही रह जाता गुणो के साक्षात्कार' रूप मे मान सकते है। ऐसी प्रात्मानो
है पौर अद्वैत वेदान्त मे तो माया, जगत् के संश्लेष से को भी जैनाचार्यों ने पाच स्वरूपो मे माना है। इन पाचो
कोई फर्क ही नही पड़ता, क्योवि. सभी ब्रह्ममय है। यदि रूपो (साधु, उपाध्याय, प्राचार्य, सिद्ध एवं महंन्तो) मे
ऐसा वास्तव में हो तो फिर यह कैसे समझ में आ सकता चित्त का नेमल्य, शान्तत्व, शिवत्व और निरज्जनत्व स्व
है कि-ब्रह्मरूप जीवात्मा से ब्रह्मरूप माया एवं जगत् का भावतः रहता है। यही परमात्मा के गुण प्रायः सभी दार्श
प्रभाव (विनाश) हो सकता है ? क्योकि इस प्रभाव से निक मानते है।
तो स्वय ब्रह्म के स्वरूप के ही प्रभाव का प्रसङ्ग उपस्थित जैन दर्शन के प्रात्म-सम्बन्धी विचारो की जब हम हो जाता है । इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि ये दर्शन अन्य दर्शनों से तुलना करते है तो ज्ञात होता है कि- प्रात्मा एव मोक्ष के स्वरूप के प्रांशिक विवेचक ही है, चार्वाक केवल भौतिक पदार्थों तक ही सीमित रहकर इनमे पूर्णता किसी में भी दिखलाई नहीं पड़ती। जबकि पुत्र, धन, देह, इन्द्रियादि रूपो मे ही प्रात्मा को खोजता जैन दर्शन जीव को प्रारम्भिक अवस्था (सांसारिक हुमा भटकता रहता है और बौद्धो की बुद्धि मे यही अवस्था) से मुक्ति पर्यन्त तक के प्रत्येक पहल का सूक्ष्मनिश्चित न हो सका कि वे प्रात्मा को माने या न मान। तम एव विशद तथा व्यवस्थित विवेचन करके यह इसीलिए गौतम बुद्ध भी आत्मा के बारे में कोई निश्चित दिखलाता है कि एक संसारी जीव (चाहे वह किसी भी मत स्थापित नहीं कर सके । वेदों मे वणित प्रात्मा का श्रेणी में स्थित हो) किस तरह परमात्मत्व (अपने वास्त. स्वरूप कभी एकेश्वरवाद में, तो कभी बहुदेववाद मे विक स्वरूप) को प्राप्त कर सकता है। इसी बात को हम निश्चित किया जाता रहा है। किन्तु कुछ स्थलों पर दूसरे शब्दों में इस तरह कह सकते हैं कि-"जैनदर्शन प्रास्मा का वैसा ही चित्र (स्वरूप) प्रगट किया हुआ प्रात्मा के द्वारा परमात्मत्व को प्राप्त करने तक की यात्रा मिलता है जैसा कि भवैत वेदान्त में ब्रह्म का प्राप्त होता का विवेचक है।' -संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली