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________________ सत्य के प्रादर्श को प्रोर "धूर्त तूने यहाँ भी मेरा पीछा नही छोडा" अनवग्न के लिए ही अमत्य पर दृढ़ है । वे बोले “हम तुम्हे यथेच्छ प्रहारों से भिक्षुक के शरीर को जर्जरित कर दिया। समय दे गनते है यमदण्ड । इम वेचारे को छोड दो।" निरीह और असहाय भिक्षुक को पिटना हुया देव भोपवाया देख महाराज | गजमहल में चोरी करके निर्वाष भागने का नागरिकको और भी अधिक भीड़ जमा हो गई। वाला इसके अतिरिक्त अन्य कोई चोर नही हो सकता। भिक्षुक पर नगर रक्षक की निष्ठुरता का प्राभास हो रहा 'यमदण्ड ने दृढतापूर्वक निवेदन किया।' था। नागरिक परस्पर मे कानाफूसी करने लगे। कोई “पर हमे विश्वास नही होता।" महाराज ने उत्तर कुछ कहता और कोई कुछ।। दिया । उनमें से एक बोला-यह नगर रक्षक इस दीन एवं "मुझे दो दिन का अवसर दीजिए, मैं इसी के मुख प्रसहाय व्यक्ति को क्यों पीट रहा है, ऐसे व्यक्ति पर इमे से स्वीकृत कराऊँगा।" यमदण्ड ने प्रार्थना की। क्या सन्देह हो गया, इसका कोई कारण ज्ञात नही हपा। “स्वीकृत है" महाराज ने यमदण्ड को अवसर देने यह तो दया का ही पात्र है। दूसरा बोला-नगर रक्षक की स्वीकृत दे दी और जाने की प्राज्ञा दी। बिना किसी सन्देह के कुछ नही कहता, कोई न कोई बात चोर की पोर ज्वाला भरी दृष्टि से देखता हुमा अवश्य होगी। इसका रहस्य बाद में ज्ञात होगा। तीसग यमदण्ड उसे निर्दयतापूर्वक घसीटता हुमा अपने गृह ले बोला-ऐसा भी हो सकता है कि नगर रक्षक इसकी गया। किसी हरकत से नाराज होकर कर रहा है। चौथा इन दो दिनों में यमदण्ड ने सैकडो उपाय किये, कि बोला-ऐसे असमर्थ व्यक्ति पर नगर रक्षक विना कारण भिक्षक अब भी अपना अपगघ स्वीकार कर ले, कशाघात ही सदेह कर बैठा, इस तरह परम्पर वाते हो ही रही से भिक्षुक के शरीर से रक्त बहने लगा। मारने-पीटने से थी, किन्तु किसी ने भी नगर रक्षक के विरुद्ध कुछ भी उमकी हड्डिया टूट गई, पर उमने स्वीकृति-मूचक सिर भी कहने का साहस नही किया। एक वृद्ध मज्जन वोले- नही हिलाया. चुप रहा । जैसे वह मौनधारी हो। नगर रक्षक की परख अनोखी होती है, यह भिक्षुक बना- यमदण्ड का क्रोध क्षण-क्षण बढ़ता गया। उसने वटी भेष मे नजर आता है। हो मकना है कि इसका भिक्षक को अनेक प्रकार में पीडा पहँचाई पर उसका कोई सम्बन्ध राजमहल की चोरी से हो। पर विना किमी मफल परिणाम न निकला, भिक्षक के मुख से स्वीकृति का प्रमाण के कोई विचार संभव नही जंचता। वह एक शब्द भी नहीं कहला मका । भिक्षुक महाराज के सम्मुख उपस्थित किया गया। “विद्यच्चर | अब तुम मेरे हाथ मे हो, बच नही यमदण्ड ने अनेक प्रकार मे यह प्रयत्न किया कि यह मकने" अन्त में हार कर यमदण्ड ने कहा । अपना अपराध स्वीकार कर ले । पर भिक्षुक उमे बराबर पर जिमे विद्युच्चर कहा गया, उमने इन शब्दो पर अस्वीकृत करता रहा । 'मै दीन है महाराज, मेरी सामर्थ्य कोई ध्यान ही नही दिया। जैसे ये वाक्य उससे नही कहे ऐसी कहाँ', उसने प्रार्थना की। गये हो, या वह विधुच्चर मे अपरचित है। महाराज और अन्य सामन्तो को उमके चोर होने में निश्चित अवधि के बाद यमदण्ड ने उसे राजसभा में विश्वास नही होता था। उसकी दीन अवस्था देखकर तो उपस्थित किया अवश्य, पर स्थिति में कोई सुधार नही उसपर विश्वास करना किसी तरह भी संभव नही जचता। हा, वह पूर्ववत अपने वक्तव्य पर दृढ था । सब यही सोचते थे, कि यमदण्ड ने अपने प्राणो की रक्षा गजा ने यमदण्ड की ओर उसकी असफलता-सूचक के निमित्त इस बेचारे भिक्षक को पकड लिया है। यमदण्ड यह चोर नही है, महाराज ने कहा । अवश्य महाराज ! यह स्वीकृति करे या न करे चोर यही है महाराज, चोर यही है, यमदण्ड ने दृढता से उत्तर है। मैने भरसक चेष्टा की, पर इससे स्वीकृति न करा दिया। महाराज ने विचार किया कि यमदण्ड अपनी रक्षा मका । इसकी हड्डियां टूट गई, शरीर से रक्त बहने लगा।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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