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________________ ३२, वर्ष २३ कि.१ अनेकान्त चोर अवश्य ही मेरे चंगुल में फसेगा महाराज! हो सकता, वह अवश्य ही यही कही छिपा होगा। यह भी यमदण्ड ने प्राशा व्यक्त की। हो सकता है वह मेरा कोई शत्रु हो और मेरे विरुद्ध ही बस, चुप रहो, निरर्थक दम्भ अच्छा नहीं होता, उसने यह षड्यन्त्र रचा हो । अथवा वह अपना भेष बदल राजा ने उत्तर दिया। कर किसी दूसरे ही भेष में छिपा हुमा हो । जिसपर मेरी मैं सच कहता हू महाराज, चोर मेरी दृष्टि से छिप दृष्टि न पड़ सकी हो, मैंने नगर के सभी शून्य स्थान भी नही सकता, मेरी शिक्षा असमर्थ नहीं हो सकती।' यम- देख डाले, जिनमे चोरों के ठहरने की संभावनाए हो दण्ड ने महाराज के निर्णय पर अविश्वास प्रकट किया। सकती थी, पर उनमे भी कही किसी चोर का पता नही "सुनो, मैं तुम्हें सात दिन का अवसर देता है। सात चला । आज का दिन मुझे दुर्भाग्यसूचक जान पड़ता है। दिन में ही चोर उपस्थित किया जाना चाहिए। अन्यथा शत्रु का विचार पाते ही यमदण्ड का उत्साह दुगना चोर के स्थान पर तुम्हे दण्ड का भागी होना पड़ेगा।" हो गया, उसका क्रोध उमड़ पाया और उसने उसी क्षण महाराज ने क्रोध भरे स्वर में आज्ञा दी। निश्चय किया कि मैं चोर को अवश्य पकडूंगा। उत्साहित यमदण्ड चुप रहा। यमदण्ड पुनः अपने कार्य मे सलग्न हो गया। सुन लिया न । जानो, महाराज ने दुबारा तीक्ष्ण xxx स्वर में उत्तर दिया। यमदण्ड मस्तक झुकाकर चल एक स्थान पर उसने देखा, एक भिक्षुक फटे-पुराने दिया। चिथड़ों में लिपटा, क्षुधित, असहाय पड़ा हुआ है। नाग___ यमदण्ड की चिन्ता अधिक बढ़ गई। चोर का पता रिकों ने उसे चारो ओर से घेर रखा है। नागरिकों को नही लगा तो निश्चय ही मुझे दण्ड भोगना पड़ेगा। इसी देखते ही वह दीन स्वर मे भिक्षा के लिए प्रार्थना करता चिन्ता में मग्न यमदण्ड नगर के एक छोर से दूसरे छोर है, गिडगिडाता है, किन्तु भिक्षा मिलने पर उनकी आँख तक भनेक चक्कर काटता रहा। बहुत ही जोर से उसने बचा कर उपेक्षा से एक ओर डाल देता है। चारों तरफ दृष्टि डाली, परन्तु चोर का कही कोई सुराग यमदण्ड भिक्षुक की यह क्रिया बड़ी देर से गौरपूर्वक तक न मिला। चोर मिलना तो दूर की बात है। छह देख रहा था, पर भिक्षुक यमदण्ड को अब तक देख नहीं दिन बीत चुके थे, और आज उसका अन्तिम दिन था। पाया था। उसकी दीन और दुखित अवस्था मे किसी को चोर का पकड़ा जाना असम्भव-सा प्रतीत होता था। यम- संशय नही हो सकता था, पर यमदण्ड ऐसे असमर्थ प्राणी दण्ड युवक था, धीर था, उसने कभी प्रमाद नहीं किया। पर भी सन्देह कर बैठा । बड़ा ही फुर्तीला था, उसकी दृष्टि मे चोर को पहचानने 'चोर यही है' न जाने क्यो उसके मन में विश्वास की कला थी। चोर उससे छिप कर कही जा नही सकता होने लगा। भिक्षक की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक स्वर और था। परन्तु निरपराध दण्ड उसे असह्य था। यह कहना तो उसके प्रत्येक आचरण में यमदण्ड को सन्देह होने लगा। अनुचित ही होगा कि वह चोर को ढूढने मे सलग्न न रहा उसकी प्रार्त वाणी और दीन पाचरण सब ढोग पोर छल हो, इतना प्रयत्न करने पर भी यदि चोर न पकडा जाय प्रतीत होने लगे। उसे भिक्षुक के कातर चेहरे पर धृष्टता । सभव है वह राज्य छोड़ कर और धूर्तता के स्पष्ट दर्शन हुए। मन ही मन उसने अन्यत्र भाग गया हो, और यह भी सभव है कि वह कही निश्चय किया और दूसरे ही क्षण भिक्षुक के सम्मुख जा भय के मारे प्रात्महत्या न कर बैठा हो। यमदण्ड यही खडा हमा। भिक्षक ने यमदण्ड को एक बार देखा पोर सोचता-विचारता व्यर्थ ही यहाँ से वहाँ टहल रहा था। फिर सदा की भाति दीन स्वर में याचना करने लगा। चोर के पात्मघात करने या भाग निकलने पर उसे इस बार उसके स्वर में कम्पन था। यमदण्ड से वह छिप विश्वास नहीं हो रहा था। वह सोचता था कि राजमहल न सका । उसे निश्चय हो गया कि चोर यही है । उसका में चोरी करने का दुःसाहस करनेवाला इतना कायर नही क्रोध उमड़ पड़ा। कठोर पाद प्रहार से वह चिल्लाया ।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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