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________________ सत्य के आदर्श की ओर परमानन्द जैन शास्त्री पाखिर चोरी हो ही गई। अर्घ रात्रि का सन्नाटा विचित्र चोर अाज तक भी नहीं देखा ।' यमदण्ड ने अपनी छाया हमा था। कहीं से कोई प्रावाज नहीं पा रही थी। असफलता का कारण चोर का विचित्र होना बतलाया। नगर शान्त और स्तब्ध था। जनता निद्रा देवी की गोद चोर विचित्र नही है यमदण्ड ! तुम्हारा प्रबन्ध में विलुप्त हो रही होगी। कोई चोर राजमहल में गया विचित्र है। जागत व्यक्ति ही चोर को पकड़ सकता है। पौर वहां से बहुमूल्य हीरे जवाहरात लेकर चम्पत हो महाराज गया । प्रातःकाल राजमहल में चोरी होने की घटना नगर मेरे प्रबन्ध में कोई त्रुटि नहीं है श्रीमान् ! यमदण्ड में विजली की तरह फैल गई। राजमहल से रत्नों को चोरी : ने दृढता से उत्तर दिया। की घटना मसाधारण है इससे चारों मोर नगर में प्रातक महाराज का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। उन्हें यह छा गया। सदस्यगणों और राज्य में निवास करनेवाले बेष्ठिजन इस प्राकस्मिक घटना से तलमला उठे। किसी विश्वास हो गया था कि नगर रक्षकों की उपेक्षा के को भी विश्वास न होता था कि परिचारिकों और सैनिकों कारण ही यह दुर्घटना घटी। अन्यथा इतने रक्षकों के से संरक्षित राजमहल से बह मूल्य हीरे चले जायंगे। जो रहत हुए किसका साहस था कि वह राजमहल में प्रविष्ट सुनता वही पाश्चयं करता। महाराज वामरथ भी स्वयं हा सक। राजमहल एक सरक्षित एवं सुरक्षित स्थान इस घटना से चकित हो रहे थे। उनके राज्यकाल में में वहाँ साधारण जन तक का विना किसी कारण के प्रवेश पा आज तक किसी चोर को चोरी करने का साहस नहीं सकना अत्यन्त दुष्कर है। वहां बिना किसी पाशा के हमा था। इतने संरक्षकों और परिचारकों के रहते हुए प्रविष्ट हो जाना प्रति साहस का कार्य है। वह रक्षकों भी चोर का रहस्य प्रज्ञात ही रहा, वह किसी के दृष्टि. की असावधानता का स्पष्ट द्योतक है यदि रक्षक जागते गोचर नहीं हुमा। पकड़े जाने की तो बात ही दूर थी। और सावधान रहते तो चोरी का सवाल ही नहीं उठता। राजमहल मे प्रविष्ट होना तो दूर की बात है । राजमहल रक्षकों की व्यवस्था और उपेक्षा वृत्ति पर महाराज में रात-दिन का कड़ा पहरा होते हुए भी किसकी मजाल का क्रोध बढ़ता जा रहा था। इस तरह की उपेक्षा वृत्ति और प्रालसी वृत्ति से तो लोग राज्य भी लुटा सकते है। थी जो अन्दर प्रवेश पा सके । रक्षकों को उपेक्षा ही चोर के प्रविष्ट होने का प्रबल कारण है। पात्र को माक्रमण का अवसर भी प्रदान कर सकते है। यह नगर रक्षकों का ही सम्पूर्ण दोष है। यह विचार कर जिस नगर का राजा प्रेमपूर्वक प्रजा का पालन करता महाराज ने यमदण्ड नामक नगर रक्षक को उपस्थित होने हो, नगर धन-धान्य से समृद्ध हो, राज्यकमॅचारियों और की प्राज्ञा दी। नगरवासियों का व्यवहार सरस हो, गरीबी, दरिद्रता और नगर रक्षक उपस्थित हुआ, उसे देख कर महाराज अमीरी का अभिशाप सन्तापजनक न हो। प्रबन्ध में त्रुटि का क्रोध उबल पड़ा। चोर का पता लगा? उसके पाते होना इसका प्रबल प्रमाण है, रक्षा की कमी का सबूत ही महाराज ने प्रश्न किया। "अभी तक नही लगा महा- और क्या हो सकता है ? राज !" नगर रक्षक ने कम्पित स्वर मे उत्तर दिया। मैं तुम्हारा ही अपराध मानता हूँ। तुम्हारी उपेक्षा "तुमने प्रयत्न किया" राजा ने दूसरा प्रश्न किया। चारों के कारण ही राज्य को हानि उठानी पड़ी।' राजा ने दिशामों में चरों को नियुक्त कर दिया है श्रीमान् ! ऐसा निर्णय दिया।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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