________________
१६४, वर्ष २३, कि०४
अनेकान्त
(६) परन्तु दोनों का ही अभीष्ट सिद्ध नहीं हुमा। [पृ० होगा, यह भी कहा था। यही कारण है कि मैं तपस्वी ३६२.५-३६२.१६] ।
भेष में तुम्हारे सामने उपस्थित है। (२:) [चोक पृ० विद्याधर ने राज कुमार से वह समय पूछा जब विलास- ३६६ १४-३६६:२] । सनत्कुमार ने यह मास तक वती को अजगर ने निगला था। विगत तीन दिवस पूर्व विद्यासाधन की प्रारम्भिक तयारी की। उसने विलासवती समय जानकर उसने कहा-हिलासवती अभी जीवित है। को साहसी और धैर्यवती होने की शिक्षा दी। जब मंत्र क्योकि विद्याघरों का राजा चक्रसेन यहाँ से दस योजन का एक लाख जाप हमा, प्रकृति में हलचल सी मच गई। दूर अप्रतिहतचक्रविद्या की सिद्धि एक वर्ष से कर रहा है।
ज्यों ज्यों पाप की मात्रा (संख्या) बढी, सनत्कुमार के सात दिवस से अडतालीस योजन तक विद्याधर का आदेश
समक्ष प्रेतनियाँ, पिशाचनियाँ हाथी के वेष मे, सिंह के भेष है कि कोई भी किसी जीव को नही मार सकता। इसी
मे, साँप के रूप, राक्षसी के रूप मे प्रगट हुई । (इस दृश्य कारण तुम भी बचे थे और विलासवती भी अवश्य जीवित का कवि ने पर्याप्तरूप से वर्णन किया है)। विलासवती है। शीघ्र ही उसकी खबर तुम प्राप्त करोगे। (७-१०) और सनकमार के धैर्य की यह परीक्षा थी। (२२.३०) वह रात्रि व्यतीत हुई। कठिन साधन द्वारा चक्रसेन को अन्त मे भव्य-वातावरण के मध्य विद्या. सनत्कुमार के विद्या सिद्ध हो गई। दूसरे दिन प्रातःकाल राजकुमार पास प्राई और उसके घेर्य की प्रशंसा की। (३१) वहाँ विद्याधर के साथ चक्रसेन को बधाई देने गये। विद्याधर अति प्रसन्न मुद्रा में विद्याधरो का समूह आया और उसकी ने राजकमार का वृत्तान्त चक्र सेन से कहा। इतने में ही विद्यासिद्धि पर बधाई दी। (३२) सनत्कुमार ने विद्यादो युवक विद्याधर पाए और उन्होने कहा कि हमने धरो का स्वामी बनना सीकार किया यदि से विलासअपने प्रिय से वियुक्त एक स्त्री को अजगर के निगलने से वती और वसुभति के साथ रहने दिया जाये। [श्लोक बचाया है। (११-१३) निर्देशानुसार स्थान पर गजकुमार प० ३६६.३-३७२.१५] । गया, प्रति व्यथित राजकुमारी के मिलाप में दोनो प्रमृदित सप्तम सन्धि-जिस गुफा में सनत्कुमार विद्यासिद्ध हए। (१४) गजकुमार अति प्रसन्न था। चक्रसेन ने कर रहा था, उसके द्वार पर से न वसुभूति का स्वर उमे अजितबल नामक अति उपयोगी साधना के साधन सुनाई दिया, न उस गफा में विलासवती दिखाई दी। का उपाय बतलाया। (१५) [लोक पृ. ३६२.१७- विद्याधरो की सहायता से उसने समस्त मलय के जगल में ३६६.१३] । राजकुमार ने प्रतिबल साधन का निश्चय उन दोनो की खोज की। एक वृक्ष-समूह के मध्य में किया परन्तु उसे कुछ सहायता की आवश्यकता थी। उसे उन्होने वसुभूति को देखा। वसुभूति ने समझा कि यह अपने पूर्वमित्र वसुभूति का स्मरण किया। उसी समय वही विद्याधरो का समूह है, जो विलासवती को हरण तापसभेष में एक व्यक्ति प्राया । पहचानने पर ज्ञात हा कर ले गया है और जिसके शोक मे वह रो रहा था। कि वही वसुभूति है। इतने दिनों के मकट के पश्चात् उसने विद्याधरो से युद्ध करना प्रारम्भ किया। परन्तु दोनो मिलकर बडे प्रसन्न हुए। (१६) कुशलक्षेम के पूछने शीघ्र ही एक दूसरे को पहचान गये । बसुभूति ने विद्यातथा किञ्चित् विश्राम के बाद वियुक्त काल के सब धरो के एक दल द्वारा वसुमती का हरण, स्वय द्वारा समाचार पूछे। वसुमति ने जहाज के ध्वस्त होने और विमान का अनुसरण करने एव उसमे प्राप्त प्रसफलता का काष्ठफलक के सहारे पांच दिवस में मलय के समुद्रतट पर सर्व वृत्तान्त सुना दिया। राजकुमार ने प्रतिबल विद्या पहुँचने की बात सुनाई। वहाँ एक तपस्वी मिला और के द्वारा विलासवती की प्राप्ति के प्रति उसे विश्वस्त मुझे धर्माचरण की शिक्षा दी एवं संसार के क्षणभगुर किया। (१-३) विद्या वहाँ पाई और उन्हें वहीं ठहरने स्वभाव का वर्णन किया । (१७-१६) परन्तु तपस्वी के की आज्ञा देकर पवनगति को विलासवती की खोज के समझाने पर भी मैं दीक्षा लेने को तैयार न हुप्रा । (२०) लिए भेजा। तीन दिन बाद पवनगति ने उसका पता तपस्वी ने गजकुमार और विलासवती से तुम्हारा मिलना लगाया और कहा कि वह रथनूपुर चक्रवाल नगर में है ।