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१९०, वर्ष २३ कि०४
अनेकान्त
दर्शानों का संक्षेप में परिचय दिया गया है। प्रस्तुत ग्रंथ मतों को भी अधिकारी के भेद से भिन्न माने हैं । अन्य मे शैव में न्याय-वैशेषिक का समावेश है-यह ध्यान देने वैदिक मतों के विषय में भी इनका कहना है कि ये सभी योग्य है। यह भी प्राचार्य हरिभद्र के समान केवल परि. वेदान्त शास्त्र के प्रर्थ का प्रतिपादन करने के चयात्मक प्रकरण है। अन्त मे जो उपदेश दिया है वह तत्पर है - ध्यान देने योग्य है
बेबाम्तशास्त्र सिद्धान्त: संक्षेपावय कथ्यते । सन्तु शास्त्राणि सर्वाणि सरहस्यानि दूरतः ।
तवर्षप्रवणाः प्रायः सिद्धान्ताः परवादिनाम् ॥१२.१ एकमप्यक्षरं सम्यक शिक्षितं निष्फलं नहि ।।८.३११
वेदबाह्य दर्शनों को लेखक नास्तिक की उपाधि यह प्रकरण ६६ श्लोक प्रमाण है।
देता है। प्राचार्य शंकरकृत माना जानेवाला 'सर्वमिद्धान्त- "नास्तिकान वेदवाद्यास्तान् बोलोकायताहतान् । ५.१ संग्रह' अथवा सर्वदर्शन सिद्धान्तस ग्रह' मद्रास सरकार के
सायण माघवाचार्य (ई. १६००) ने 'सर्वदर्शनप्रेम से ई० १६०६ में श्री रंगाचार्य-द्वारा सम्पादित होकर
सग्रह' नामक ग्रंथ की रचना की-उसकी पद्धति नयचक्र प्रकाशित हुआ है । श्री पं० सुखलाल जी को यह प्रसिद्ध
से मिलती है । भेद यह है कि उन्होने कमश नयचक्र की अद्वैत वेदान्त के प्राद्यशंकराचार्य की कृति होने में सन्देह
तरह, पूर्व-पूर्व दर्शन का उत्तर-उत्तर दर्शन से खण्डन है (समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र, पृ० ४२)। किन्तु इतना
करा कर भी अन्त में अद्वैतवेदान्त की प्रतिष्ठा की है। तो कहा ही जा सकता है कि यह कृति सर्वदर्शनसग्रह
उस अन्तिम दर्शन का खण्डन किसी दर्शन से नहीं (माधवाचार्य) से प्राचीन है। इस प्रथकार के मत से भी
कराया । जब कि नयचक्रगत अन्तिम मत का निराकरण वैदिक और अवैदिक ऐसा दर्शन विभाग है। वैदिको मे इनके
सर्वप्रथम उपस्थित मत के द्वारा किया गया है और मत से जैन, बौद्ध और बृहस्पति के मतों का समावेश
खण्डन-मण्डन का चक्र प्रवर्तित है। 'नयचक' के मत से नहीं है । इस ग्रन्थ में भी माधवाचार्य के सर्वदर्शनसग्रह
उपस्थित सभी मत सम्मिलित हो तो सम्यग्दर्शन या की तरह पूर्व-पूर्व दर्शन का उत्तर-उत्तर दर्शन के द्वारा
अनेकान्त होता है। जब कि 'सर्वदर्शनसग्रह' के मत से निराकरण है । दर्शनों का इस प्रकार निराकरण करके
अन्तिम प्रतदर्शन ही सम्यक है। सायण माधवाचार्य ने अन्त में प्रद्वैत वेदान्त की प्रतिष्ठा की गयी है । दर्शनों
क्रमशः जिन दर्शनों का निराकरण किया है और अन्त में का क्रम इस ग्रंथ में इस प्रकार है
प्रद्वैतवाद उपस्थित किया है- ये है -१. चार्वाकदर्शन, १. लोकायतिक पक्ष, २. पाहतपक्ष, ३. माध्यमिक, २. बौद्धदर्शन (चारों भेद), ३. दिगम्बर (पाहतदर्शन), ४. योगाचार, ५. सौत्रान्तिक ६. वैमाषिक, ७. वैशेषिक. ४. रामानुज, ५. पूर्णप्रज्ञदर्शन, ६. नकुलीशपाशुपनदर्शन, ८. नैयायिक, ९. प्रभाकर, १०. भट्टाचार्य, (कुमारांश= ७. माहेश्वर (शेव दर्शन), ८. प्रत्यभिज्ञादर्शन ६. कुमारिल), ११. सांख्य, १२. पतञ्जलि, १३. वेदव्यास,
रसेश्वरदर्शन, १० भोलूक्यदर्शन (वैशेषिक) ११. अक्षपा१४. वेदान्त । इन दर्शनों में से वेदव्यास के दर्शन के नाम ददर्शन (नैयायिक), १२. जैमिनिदर्शन (मीमासा), १३. से जो पक्ष उपस्थित किया गया है वह महाभारत का
पाणिनिदर्शन, १४. सांख्यदर्शन, १५. पातंजलदर्शन, १६. दर्शन है । जैनदर्शन को प्रातिपक्ष में उपस्थित किया गया शांकरदर्शन (वेदान्तशास्त्र)। है किन्तु लेखक ने भ्रमपूर्ण बातों का उल्लेख किया है। प्रस्थानभेद' के लेखक ने जिस उदारता का परिचय पता नहीं उनके समक्ष जनदर्शन का कौन-सा ग्रंथ था। दिया है वह भी इस सर्वदर्शनसंग्रह में नही । वह तो अद्वैत लेखक जैनों के मात्र दिगम्बर सम्प्रदाय से परिचित है। को ही अन्तिम सत्य मानता है। नयचक्र में सर्वदर्शनो के बौद्धों के चार पक्षों को अधिकारी भेद से स्वीकृत किया समूह को भनेकान्तवाद कहा है मौर प्रत्येक दर्शन को है। इतना ही नहीं किन्तु बृहस्पति, प्रार्हत मोर बौद्धों के एकान्त कहा है। उनके अनुसार अद्वैत मत भी एक