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षड्दर्शन समुच्चय का नया संस्करण
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छह संरूपा की पूर्ति वे लोकायत दर्शन को जोड़कर करते ध्यान देने की बात है कि तत्त्वसग्रह में भी प्रात्म-परीक्षा हैं। प्रताव हम यहां लोकायत दर्शन का भी निरूपण करेंगे प्रकरण में प्रौपनिषदात्मपरीक्षा-यह एक प्रवान्तर प्रक(का० ७६) । सारांश यह हुया कि प्रा० हरिभद्र ने छह रण है । वेदान्त के विषय मे उसमें कोई स्वतंत्र 'परीक्षा' प्रास्तिकदर्शन और एक नास्तिकदर्शन-लोकायत दर्शन नहीं है। तत्त्व-संग्रह के पूर्व में भी समन्तभद्राचार्य की का प्रस्तुन षड्दर्शनसमुच्चय मे निरूपण किया है। इससे प्राप्तमीमांसा मे अद्वैतवाद का निराकरण था ही। वह स्पष्ट है कि हरिभद्र ने वेदान्तदर्शन या उत्तरमीमांसा को प्राचार्य हरिभद्र ने षडदर्शन की रचना के पूर्व न देखा हो इसमें स्थान दिया नहीं। इसका कारण यह हो सकता है यह सम्भव नही लगता । अतएव षड्दर्शन मे वेदान्त को कि उस काल में अन्य दर्शनों के समान वेदान्त ने पृथक् स्वतत्र दर्शन का स्थान न देने में यही कारण हो सकता दर्शन के मप में स्थान पाया नही था। वदान्तदर्शन का है कि उस दर्शन की प्रमुख दर्शन के रूप में प्रतिष्ठा जम दर्शो में स्थान प्रा० शकर के भाष्य और उसकी टीका पायी न थी। भामती के बाद जिस प्रकार से प्रतिष्ठित हुप्रा सम्भवतः मानसंगारक अन्य ग्रन्थ उसके पूर्व उतनी प्रतिष्ठा उसकी न भी हो। यह भी कारण
प्रस्तुत षड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करके अन्य हो सकता है कि गुजरात राजस्थान में उस काल तक
जैनाचार्यों में दर्शनसंग्राहक ग्रथ लिखे। और उनमें भी वेदान्त की उतनी प्रतिष्ठा न भी हो।
उन्होंने प्राचार्य हरिभद्र जैसा ही दर्शनों का परिचय मात्र शास्त्रवासिमुच्चय की रचना तत्त्वस ग्रह को समक्ष
देने का उद्देश्य रखा है। रखकर हुई है। दोनो मे अपनी अपनी दृष्टि से ज्ञातदर्शनों
प्राचार्य हरिभद्र के बाद किसी जैन मुनि ने “सर्वका निराकरण मुख्य है । शास्त्रवातासमुच्चय मे जिनदर्शनो
सिद्धान्तप्रवेशकः" ग्रन्थ लिखा था। उसकी तालपत्र मे का निराकरण है उनका दर्शनविभाग क्रम से नहीं किन्तु
वि० १२०१ मे लिखी गयी प्रति उपलब्ध है-इससे पता विषय-विभाग को लेकर है। प्रसिद्ध दर्शनो मे चार्वाकों के
चलता है कि वह राजशेखर से भी पूर्व की रचना है । भौतिकवाद का सर्वप्रथम निराकरण किया गया है सद
मुनिश्री विजय जी ने इस पुस्तिका का सम्पादन किया है नन्तर ईश्वरवाद जो न्याय-वैशेषिक समत है, प्रकृति पुरुष.
और जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई से वह ई० १६६४ वाद (साख्यसंमत), क्षणिकवाद (बौद्ध), विज्ञानाद्वैत
में प्रकाशित है। इसमें क्रमश: नैयायिक, वैशेषिक, जैन, (योगाचार बौद्ध), पुनःक्षणिकवाद (बौद्ध), और शून्यवाद
साख्य, बौद्ध, मीमासा और लोकायत दर्शनों का परिचय (बौद्ध) का निराकरण किया गया है । तदनन्तर नित्या
है। प्राचार्य हरिभद्र का षड्दर्शन पद्यो मे है तब यह गद्य नित्यवाद (जैन) की स्थापना करके प्रतिवाद (वेदान्त)
मे है। वही दर्शन इसमे भी है जो प्राचार्य हरिभद्र का निराकरण किया है। तदनन्तर जैनों के मुक्तिवाद की
के षड्दर्शन में है। इस ग्रन्थ मे दर्शनों के प्रमाण प्रौर स्थापना पोर सर्वज्ञताप्रतिषेधवाद (मीमांसक) और
वापसम्बन्धमानषधवाद का निराकरण है। इससे स्पष्ट प्रमेय का परिचय कराना लेखकको है कि षड्दर्शनसमुच्चय मे जिस वेदान्त को स्थान नहीं
वायडगच्छ के जीवदेवसूरि के शिष्य प्राचार्य जिनमिला था उसे शास्त्रवार्तासमुच्चय मे (का० ५३४-५५२) ६
दत्तसूरि (वि० १२६५) ने विकविलास' की रचना
___ की है (प्रकाशक, सरस्वती ग्रथमाला कार्यालय, प्रागरा, मिला है इसका कारण सम्भवतः यह है कि आचार्य हरिभद्र ने शान्तिरक्षित का तत्त्व-संग्रह देखा और उसमे से वि० १६७६) उसके अष्टम उल्लास मे 'षडदर्शन विचार
नाम का प्रकरण है-उसमे जैन, मीमासक, बौद्ध, साख्य, प्रस्तुत वाद के विषय में उन्होने जाना तब उस विषय की
शैव (नैयायिक और वंशे पिक) और नास्तिक-- इन छहों उनकी जिज्ञासा वलवती हुई और अन्य सामग्री को भी । उपलब्ध किया। तस्व-सग्रह की टीका में उस प्रोपनिष. १. इसी ग्रन्थ में से सर्वदर्शनसग्रह मे 'बौद्धदर्शन' के दिक अद्वैतावलम्बी कहा गया है (का० ३२८)। यह भी श्लोक उद्धृत है- सर्वदर्शनसग्रह पृ० ४६ (पूना)। .