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१००, वर्ष २३ कि०३
अनेकान्त
संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंशम कुछ श्लोकभी उद्धृत किये है। कर सकता है । मुश्रावक होने के लिए व्यक्ति मे सामान्य
२. कथाकोश-यह २७ कथानको का एक संग्रह है। पौर विशेष दोनों ही गुण होना चाहिए। सुश्रावक के घनद की कहानी से यह प्रारम्भ होकर नल की कहानी में सामान्य गुण है तैतीस [३३] जिनमें सम्यक-दृष्टि और समाप्त होता है। ये कहानिया, पूजा और अन्य पुण्ण कार्यो उसके आठ अतिचार, धर्म में श्रद्धा, देव-मदिर और साथ एवम् घामिक व्रतो के फल, चार कपायो के प्रभाव एवं को सस्था की, प्रास्था पूर्वक सहायता करना और करुणा वैरागी जीवन के परिणाम सबन्धी है । टानी के मूल्यां• दया, आदि मानवी वृत्तियों का पोषण करना समाविष्ट कनानुसार, ये कहानियां भारतीय लोकवार्ताओं को यथार्थ है। विशेषगुण १७ है जिनमे पाँच अणुव्रत, सात शिक्षावत अंश ही है, परन्तु उन्हें किसी जैनाचार्य ने अपने धर्म के और सवरण एव त्याग महित कुछ अनावश्यक समाविष्ट अनुयायियों के गौरवगान का रूप देकर अपने ढंग से फिर है। इन गुणो के अनुरूप ही दान्तिक कथाएं इस कथा. से सम्पादन कर दिया है। वर्तमान रूप मे तो ये कम से कोश में प्राकृत की यहा वहां सस्कृत के श्लोकों वाली दी कम जैनाचार एव सिद्धान्त का दाष्टान्तिक चित्रण ही गई है । यह कथाकोडा बहुताश पद्य मे ही लिखा गया है, करती है । यह अथ संस्कृत में है परन्तु बीच-बीच में इसमे यद्यपि कहीं-कही कुछ प्रश गद्य में भी दिए गए है। प्राकृत गाथाए भी मिली हुई है। इसके लेखक का नाम धार्मिक और प्रौपदेशिक शिक्षा कथामो द्वारा देना ही नही दिया गया है और इसकी रचना का निश्चित ममय इसका प्रधान लक्ष्य है। इनसे प्रभावित होकर व्यक्ति निर्धारित नहीं किया जा सकता है। इसमें तीन गजानो का मुविनीत गृहस्थ वनेगा यही पाशा रखी गयी है। नाम, यथाकर्क, अरिकेसरिन और मम्मण पाया है और ४. शभशील का कथाकोश, [भरतेश्वर-बाहुबलिइनका ईस्वी १०वी-११वी शती को कर्णाटक की राज- वृत्ति]-तेरह गाथा की यह प्राकृत रचना 'भरहेसर वशावली मे पता मिलता है। इन उल्लेखो से डा० सले. बाहबलि' वाक्यावली से ही प्रारम्भ होती है। यह कदाटोर ने यह मत दिया है कि 'इस ग्रथ की रचना ११वीं चित् नित्य-स्मरण की ही एक स्तुति है। इसमे १०० सदी ईसवी के चतुर्थ-पाद पश्चात् ही हुई होगी, यह परि- महान व्यक्तियो के नाम स्मरण किए गए है। इनमे ५३ णाम निकालना अनुचित नहीं कहा जा सकता है।" पुरुष [पहला भरत और अन्तिम मेघकुमार] और ४७
३. कथाकोश [कथारत्नकोश] - इमकी रचना स्त्रियां [पहली मुलसा और अन्तिम रेणा] है कि जो भडोंच में वि० स० ११५८, ई० ११०१ मे हुई और इसके धार्मिक-वैरागिक साधनामो के लिए जनो मे सुप्रख्यात है। रचयिता थे प्रसन्नचद्र के शिष्य, देवभद्र । जैन तीर्थकरो अधिकांश तो इनमे प्राचीन जैन साहित्य में उल्लिखित के सिद्धान्तानुसार, मुक्ति का मार्ग उन्ही अच्छे माधुप्रो एवम् वणित दान्तिक कथानों, कथाम्रो उपवाथानो के और प्रच्छे श्रावकों को प्राप्त होता है कि जो अपने-अपने ही पात्र है । इनका उल्लेख सुयगडॉग, भगवई, नायाधम्मव्रतों में निष्णात हैं । और अच्छा श्रावक हुए बिना एक कहानो, अन्तगड, उत्तराध्ययन, पइन्नय, आवस्सयव-दशअच्छा साधू नही हुमा जा सकता है। जो अणुवतो का वैकालिक-निज्जुत्ति और टीकानों में है। मूल प्राकृत भली प्रकार पालन कर सका हो, वही महाव्रतों का पालन गाथानो मे तो इन नामो की शृखला मात्र दी गई है। ६. यह ग्रन्थ इस समय मुद्रघमाण है और मै श्री जिन- प्रादि मे जैन साहित्य के विशाल श्रेत्र से पूर्ण परिचितों विजयजी का आभारी है कि मुझे उनने इसके १३ में ये व्यक्तियों बिलकुल परिचित ही होंगी। परन्तु बाद फारम अग्रिम भेज दिए।
मे मूल पर परिपूर्ण टीका एवं कथानों के पूर्ण वितरण की ७. इस कथाकोश का अंगरेजी में अनुवाद सी. एच.
आवश्यकता प्रतीत होने लगी होगी। इसीलिए तपागच्छ टानी का किया मोरियटल दासलेशन फंड, सिरीज नई २, लदन १८६५ में प्रकाशित हुमा है।
६. श्री जिनविजयजी का प्राभारी है कि जिनने कृपा ८.जैन एण्टीक्वेरी, पाग १६३८, भाग ४. स. ३, पृ. कर ६० पत्रों के छपे फारम मुझे अग्रिम भेज दिए । ७७-८० ।
ग्रन्थ मुद्रघमाण है।