________________
षड्वर्शन समुच्चय का नया संस्करण
१८७
नय दुर्नय बन जाता है यदि अपनी दृष्टि का ही प्रग्रह हो मतो का सग्रह विक्रम पांचवी शती के पूर्वार्ध में भाचार्य (१,१५)। सभी नय मिथ्यादृष्टि होते हैं यदि वे स्वरूप मल्लवादी ने अपने नयचक्र मे कर दिया है। मल्लवादी के साथ ही प्रतिबद्ध हैं किन्तु यदि वे परस्पर की अपेक्षा का यह ग्रन्थ अपने कालकी अद्वितीय कृति कही जा सकती रखते हैं तो सम्यक् हो जाते हैं (१,२१), दोनों नय माने है। वर्तमान में अनुपलब्ध ग्रन्थ और मतों का परिचय जाय तब ही संसार-मोक्षकी व्यवस्था बन सकती है अन्यथा केवल इस नयचक्र से इसलिए मिलता है कि प्राचार्य मल्लनही (१,१७,२०) । प्राचार्य सिद्धसेन ने अपने इस मत की वादी ने अपने काल तक विकसित एक भी प्रधान मत को पुष्टि के लिए सुन्दर उदाहरण दिया है। उसका निर्देश भी छोडा नहीं। प्रतएव अपने-अपने मत को प्रदर्शित करने जरूरी है। उन्होंने कहा है कि कितने ही मूल्यवान् वैडूयं वाले तत्-तत् दर्शनो के ग्रन्थो की अपेक्षा सर्वसंग्राहक यह मादि मणि हों किन्तु जब तक वे पृथक्-पृथक् है 'रत्नालि' ग्रन्थ षड्दर्शन समुच्चय जैसे ग्रन्थों की पूर्वभूमिका रूप बन के नाम से वंचित ही रहेगे । उसी प्रकार अपने-अपने मतो जाता है। नयचक्र की रचना की जो विशेषता है वह के विषय में ये नय कितने ही सुनिश्चित हो किन्तु जबतक उसके नाम से ही सूचित हो जाती है। नयों का अर्थात् वे अन्य-अन्य पक्षों से निरपेक्ष हैं वे 'सम्यग्दर्शन' नाम से तत्कालीन नाना वादों का यह चक्र है । चक्र की कल्पना के वचित ही रहेगे। जिस प्रकार वे ही मणि जब अपने-अपने पीछे प्राचार्य का प्राशय यह है कि कोई भी मत अपनेयोग्य स्थान मे एक डोर में बंध जाते हैं तब अपने-अपने आप में पूर्ण नहीं है। जिस प्रकार उस मत की स्थापना नामों को छोड़कर एक 'रत्नावलि' नामको धारण करते है, दलीलों से हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्थापन भी उसी प्रकार ये सभी नयवाद भी सब मिलकर अपने अपने विरुद्ध मत की दलीलों से हो सकता है। स्थापना-उत्थावक्तव्य के अनुरूप वस्तुदर्शन मे योग्य स्थान प्राप्त करके पना का यह चक्र चलता रहता है। अतएव अनेकान्तवाद 'सम्यग्दर्शन' नाम को प्राप्त कर लेते है और अपनी विशेष मे ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त करें तब ही संज्ञा का परित्याग करते है। (१,२२-२५)। यही अने- उनका औचित्य है, अन्यथा नहीं। इसी प्राशय को सिद्ध कान्तवाद है।
करने के लिए प्राचार्य ने क्रमशः एक-एक मत लेकर उसकी स्पष्ट है कि सन्मतिकार सिद्धसेन के मत से नयों का स्थापना की है और भन्य मत से उसका निराकरण करके सुनय मौर दुर्नय ऐसा विभाग जरूरी है। तात्पर्य इतना अन्य मत की स्थापना की गई है । तब तीसरा मत उसकी, ही है कि अन्य दर्शनों के जो मत हैं यदि वे अनेकान्तवाद भी उत्थापना करके अपनी स्थापना करता है-इस प्रकार के एक अंश रूप से हैं तब तो सुनय हैं, अन्यथा दुर्नय । अन्तिम मत जब अपनी स्थापना करता है तब प्रथम मत यहीं से नयवाद के साथ अन्य दार्शनिक मतों के संयोजन उसीका निराकरण करके अपनी स्थापना करता है-इस की प्रक्रिया शुरू हुई है। स्वयं सिद्धसेन ने इस प्रक्रिया का प्रकार चक्र का एक परिवर्त पूरा हुमा किन्तु चक्र का सूत्रपात भी इन शब्दों में कर दिया है-जितने वचनमार्ग चलना यही समाप्त नहीं होता, पूर्वोक्त प्रक्रिया का पुनराहैं उतने ही नयवाद हैं । और जितने नयवाद हैं उतने ही वर्तन होता है। परसमय परमत हैं। कपिलदर्शन द्रव्याथिक नय का अपने काल के जिन मतों का संग्रह नयचक्र में हैं ये वक्तव्य है, और शुद्धोदनतनय का वाद परिशुद्ध पर्यायाथिक हैं-अज्ञानवाद, पुरुषाद्वैत, नियतिवाद, कालवाद, स्वभावनय का वक्तव्य है। तथा उलक (वैशेषिक) मत में दोनों वाद, भाववाद, प्रकृति-पुरुषवाद, ईश्वरवाद, कर्मवाद, नय स्वीकृत हैं फिर भी ये सभी "मिथ्यात्व' है क्योकि द्रव्य-क्रियावाद, षड्पदार्थवाद, स्याद्वाद, शब्दात, ज्ञानबादा अपने-अपने विषय को प्राधान्य देते हैं और परस्पर निर. सामान्यवाद, अपोहवाद, प्रवक्तव्यवाद, रूपादिसमुदायवाद, पेक्ष हैं । सारांश कि यदि वे अन्य मतसापेक्ष हो तब ही क्षणिकवाद, शून्यवाद-इन मुख्य वादों के अलावा गौण 'सम्यग्दर्शन' संज्ञा के योग्य है, अन्यथा नहीं (३,४७-४६)। १.इसके विशेष परिचय के लिए देखो, भागमयुग क
सिद्धसेन की इस सूचना को लेकर तत्कालीन सभी जैनदर्शन (मागरा) पृ० २६६।