________________
भारतीय अनुमान को जन ताकिकों की देन
केवल जैन तर्कग्रन्थों में पाया जाता है। इस पर सूक्ष्म और मांख्य तो हेतु को त्रिरूप्य तथा नैयायिक पंचारूप्य ध्यान देने पर जो विशेषता ज्ञात होती है वह यह है कि स्वीकार करते है, अतः उनके प्रभाव में उनके अनुसार अनुमान एक ज्ञान है उसका उपादान कारण ज्ञान भी तीन और पांच हेत्वाभास नो युक्त है। पर सिद्धमेन का होना चाहिए । तथोपपत्ति और अन्यथानपपत्ति-ये दोनों हेत्वाभास त्रैविध्य प्रतिपादन कैसे युक्त है ? इसका समा. ज्ञानाभास है, जबकि उपयुक्त व्याप्तिया श्रेयात्मक धान मिद्धसेन स्वय करते हुए कहते है कि चूकि अन्यथा(विषयात्मक) है। दूसरी बात यह है कि उक्त व्याप्तियो नुपन्नत्व का प्रभाव तीन तरह से होता है-कही उसकी मे एक अन्ताप्ति ही ऐसी व्याप्ति है, जो हेतु को गम- प्रतीति न होने, कही उसमें सन्देह होने और कही उसका कता में प्रयोजक है, अन्य व्याप्तियाँ अन्ताप्ति के बिना विपर्याप्त होने गे, प्रतीति न होने पर प्रसिद्ध, सन्देह होने मव्याप्त और प्रतिव्याप्त है, अतएव वे साधक नही है। पर प्रनैकान्तिक और विपर्यास होने पर विरुद्ध ये तीन तथा यह मन्ताप्ति हो तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति- हेत्वाभास सम्भव है। रूप है अथवा उनका विषय है। इन दोनो में से किसी
प्रकला कहते है कि यथार्थ मे हेत्वाभास एक ही है, एक का ही प्रयोग पर्याप्त है।
और वह है प्रकिञ्चित्कर, जो अन्यथानुपपन्नत्व के प्रभाव साध्याभास-प्रकलङ्कने अनुमानाभासों के विवेचन में होता है। वास्तव मे अनुमान का उत्थापक अविनामे पक्षाभास या पतिज्ञाभास के स्थान में साध्याभास गब्द भावी हेतु ही है, अविनाभाव (अन्यथानुपपन्नत्व) के का प्रयोग किया है । अकल के इस परिवर्तन के कारण अभाव में हेत्वाभास की सृष्टि होती है । यत. हेतु एक पर मूक्ष्म ध्यान देने पर अवगत होता है कि चूंकि साधन अन्यथानुपन्न रूप ही है, अतः उसके प्रभाव मे मूलतः एक का विषय (गम्य) माध्य होता है और साधन का अविना- ही हेत्वाभाम मान्य है और वह है अन्यथा उपपन्नत्व भाव (व्याप्ति सम्बन्य) साध्य के ही साथ होता है, पक्ष अर्थात भकिञ्चितकर । प्रसिद्धादि उसी का विस्तार है। या प्रतिज्ञा के साथ नही, अतः साधनाभाम (हेत्वाभास) इस प्रकार प्रकलङ्क के द्वारा 'अकिञ्चित्कर' नाम के नये का विषय साध्याभाम होने मे उसे ही साधनाभामो की हेत्वाभास की परिकल्पना उनकी अन्यतम उपलब्धि है। तरह स्वीकार करना युक्त है। विद्यानन्द ने अकलड्डू की
बालप्रयोगाभास- माणिक्यनन्दि ने प्राभासो का इम सूक्ष्म दृष्टि को परखा और उनका सयुक्तिक ममर्थन
विचार करते हुए अनुमानाभास सन्दर्भ में एक 'बालकिया । यथार्थ मे अनुमान के मुख्य प्रयोजक साबन और ।
प्रयोगाभाम' नाम के नये अनुमानाभास की चर्चा प्रस्तुत साध्य होने से साधनाभाम की भाति साध्याभाम ही विवे
की है। इस प्रयोगाभास का तात्पर्य यह है कि जिस मन्दचनाय है । प्रकलङ्कन शकम, आभप्रत आर ग्रासद्ध का प्रज को समझाने के लिए तीन अवयवो की मावश्यकता माध्य तथा अशक्य, अनगिप्रेत और सिद्ध को साध्याभास मला हो ही anil का प्रयोग करना जिसे प्रतिपादित किया है-(साध्य शक्यमाभप्रनमप्रसिद्ध तताऽ- चार की पावश्यकता है उमे तीन और जिसे पांच की परम । साध्याभास विरुद्धादि साधनाविषयत्वन ॥) ज नसेचा का योग करना अथवा विपरीत
अकिञ्चित्कर हेत्वाभास-हेत्वाभासो के विवेचन- क्रम से अवयवो ना कथन करना बाल प्रयोगाभास है और सन्दर्भ में सिद्धसेन ने कणाद और न्यायप्रवेशकार की तरह इस तरह वे चार (द्वि-अवयवप्रयोगाभास, त्रि-प्रवयव. तीन हेत्वाभामो का कथन किया है, प्रक्षपाद की भांति प्रयोगाभास, चतुरवयवप्रयोगाभास और विप.तावयव. उन्होने पांच हेत्वाभाम स्वीकार नहीं किए। प्रश्न हो प्रयोगाभास) सम्भव है। माणिक्यनन्दि से पूर्व इन। सकता है कि जैन नाकिक हेतु का एक (अविनाभाव- कथन दृष्टिगोचर नहीं होता। प्रत. इसके पुरस्कर्ता अन्यथानुपपन्नत्व) रूप मानते है, प्रतः उसके प्रभाव में माणिक्य नन्दि प्रतीत होते है। • नका हेत्वाभास एक ही होना चाहिए । वैशेषिक, बौद्ध
[शेष पृष्ठ २२० पर]