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________________ अपभ्रंश शब्दों का अर्थ-विचार डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री पहले अपभ्रंश को प्राकृत से भिन्न नही समझा हए जलभरित झरने थे, और कहीं काले (चितकबरे) जाता था। प्राज भी कई विद्वान् प्राकृत शब्दकोश से नाहल-चीते थे। अपभ्रश का शब्द-भण्डार भिन्न नही मानते । किन्तु 'महापुराण" मे 'णाहल' शब्द का प्रयोग निम्नलिखित वास्तविकता यह है कि जब तक अपभ्रंश का विशाल शब्द- रूप मे हमा हैभण्डार एक शब्दकोश क रूप में सकालत तथा निणीत हाकर कत्थइमरमरियई णिज्रहं कत्था जलरियई कंबरई। सामने नही पाता तब तक अपभ्रश का वास्तविक मूल्याकन कत्थई बीणियवेल्लीहलई विट्ठह मज्जतईणाहलइं। नही हो सकता। कतिपय ऐसे शब्दो का मर्थ-विचार १५.१.८-६ संक्षेप में प्रस्तुत है जो प्राकृत ग्रन्थो के अर्थ से भिन्न है पन्न ह- यह भी सिन्धसर के सघन वन के वर्णन के प्रसंग मे णाहल वणित है । घनी अटवी का वर्णन इस प्रकार हैइस शब्द का अर्थ 'पाइप्रसद्दमहण्णव' में इस प्रकार कही पर झर-झर कर झरने बह रहे थे, पौर कही लिखा हमा है--णाहल पु. (लाहल) म्लेच्छ की एक पर कन्दरामी मे जल भर गया था। कही पर बिम्बीफल जाति (पृ० ३८७)। सम्भवतः इमी अर्थ को ध्यान मे झम रहे थे। भागते हए णाहल-चीते दिखाई पड़ रहे थे। रख कर वीर कवि विरचित 'जबूसामिचरि" की कही पर पर हिरन छलांगे भर रहे थे ।...... निम्नलिखित पक्ति मे .'नाहल' का अर्थ म्लेच्छ किया इस प्रकार उक्त दोनो स्थलो पर 'नाहल' तथा गया है। 'णाहल' शब्द का प्रयोग चीते अर्थ मे हुपा है। कहि मि पज्झरियखलखलियजलवाहला कसणतणनाला। किन्त 'पाइप-मदद-महण्णव' में म्लेच्छ अर्थ-सम्भवतः ५.८. २१ प्राकृत साहित्य की किसो पहाडी जाति के लिए प्रागत -कही खल खल करके झरते हुए जल के छोटे-छोटे । जान पडता है। महापुराण के टिप्पण में श्री प्रभाचन्द्र प्रवाह थे, और कही वाले शरीर वाले म्लेच्छ थे। ने 'शबर' अर्थ लिखा है। उक्त पंक्ति के टिप्पण मे प्रसगतः यह विन्ध्याटवी का वर्णन है। इस मे बत- प्रकित हैलाया गया है कि कही गिरिमेखला पर गज व क्रुद्ध सिंह णाहलई शबराः (महापुराण १५. ११. ६) गर्जन कर रहे थे। कही शस्त्रो से पाहत बाधो की चिघाड़ किन्तु यह विचारणीय है कि वन-पशुयो के वर्णन के से अटवी गूंज रही थी और कही नील गाय विदीर्ण कर । विदाण कर प्रसग में शबर कहा से पा गया? उक्त दोनो ही उद्धरण दी गयी थी। कही घुरघुराने हुए वनले सुपरो की दाढो से इतने स्पष्ट एवं स्फीन है कि मरिता के तट पर सघन वन उखाडे हुए कन्द सूख रहे थे। कही हुंकारा भरते हुए की जो स्वाभाविक सुषमा होती है उसे ही प्रकट करने शक्तिशाली महिषों के मोगों से पाहत हुए वृक्ष गिर गये वाले हैं। वन-पशुमो के प्रसग मे ‘णाहल' का अर्थ व्याघ्र थे । कही लम्बी चीत्कारें छोडते हुए बन्दर दौड रहे थे। या चीता उपयुक्त प्रतीत होता है । पुष्पदन्त के महाकही घ-धू करते हुए सैकडों उल्लुओं की पावाज से रुष्ट पराण मे स रुष्ट पुराण मे एक अन्य स्थल पर भी इसका प्रयोग मिलता हुए कौवे कांव कीव कर रहे थे। कही खल खल करते है १. जबसामिचरिउ : सम्पा०-अनु० डॉ० विमलप्रकाश २. महापुराण : सम्पा० डॉ० पी० एल. बंद्य, माणिकजैन, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी। चन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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