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________________ सत्य के प्रादर्श को मोर विभव भी नही चाहता सुख और विलास से में तृप्त हो "यमदण्ड मुझे क्षमा करो" वह यमदण्ड के गले चका । भोग-विलास देखने में सुन्दर प्रतीत होते है, लिपट गया, दोनो की अांखो से अश्रुधारा बहने लगी। पर इनमें कोई सार नही है। मैने भोग विलास मे जीवन आज दीर्घकाल के अनन्तर दो मित्रो का मिलन यों ही बिता दिया। ये नीरस है, इन्हें जितना भोगा, हमा था। उतनी ही अधिक लालसा बढ़ती है। भोगो को भुजग के "राजकुमार स्थिर हो, प्रभी तुम्हारी अवस्था अल्प समान उसने वाले बतलाया है । भुजग तो एक बार ही है, तपस्वी जीवन तुम्हारे योग्य नही" महाराज ने करुणा डसता है, पर इनसे जीव अनन्तबार डसा जाता है। जैसे ईधन से आग की तृप्ति नहीं होती, और नदी जल भरे स्वर में कहा । से समुद्र की भी, वैसे ही भोगो से भी जीव की नही महाराज, मैं ससार की बिडम्बना देख चुका । तृप्ति कभी नही हो सकती। मुझे तो अब इससे घृणा अब मै सत्य की खोज करूगा'। संसार कितना दुख रूप हो गई है। मैं इन सबको त्याग कर प्रात्म-साधना करना। है, यह ज्ञानियो और विवेकीजनो से छिपा नही है । उसको चाहता है। मैने निश्चय कर लिया है कि बिना तपश्चरण विषमता और बिडम्बना का प्राभास पद-पद पर होता और ज्ञान के कर्म की निर्जरा नही हो सकती । सयम ही है, उसने हाथ जोडकर प्रार्थना की और चल दिया। जीवन का सर्वग्व है। उससे ही प्रास्रव-भीम से रक्षा हो दूसरे दिन निर्जन पर्वत को एक गुफा में वह दिगम्बर सकती है। जो तपस्वी और सयमी है वे महान है, उन्ही मुद्रा में स्थित प्रात्मध्यान मे मलीन था। वह अन्य कोई के पद चिह्नो पर चलकर मै जीवन को सफल बना नही, राजकुमार विद्य च्चर ही था। उसको ध्यान मुद्रा सकगा। मुझे जाने की आज्ञा दीजिए।" विद्य चर ने देखने से पता चलता है कि वह प्रात्म-साधना में कितना नम्र होकर प्रार्थना की। निष्ठ है। कवि रूपचन्द का एक गीत कवि रूपचन्द का यह प्राध्यात्मिक पद जहाँ मम्बोधक और उपदेशिक है, वहीं घट के अन्तपंट खोलने की प्रेरणा देता है । और मानव जीवन के मापदण्ड को सुधारने या व्यवस्थित करने की प्रोर भी संकेत करता है। कवि का विचार है कि विषय विकार तज कर सद्गुरुपो द्वारा निर्दिष्ट पथ अपनाने से मफलता प्राप्त हो सकती है। मन मानहि कि न समझायो रे। जब तब प्राजु काल्हि जु मरण दिन, देखत सिर पर पाया रे ॥१ बुधि बल घटत जात दिन दिन, सिथिल होत यह कायो रे । करि कछु लै जुकरउ चाहत है, पुनि रहि है पछितायो रे ॥२ नर भव रतन जतन बहुतनित, करम करम करि पायो रे । विषय विकार काच मणि बदले, सु अहले जनम गवायो रे ॥३ इत उत भ्रम भुल्यौ कित भटकत, करत आपनो आयो रे । रूपचन्द चलहि न तिहि पथ, सद्गुरु प्रकट दिखायो रे ॥४
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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