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धर्म की कहानी : अपनी जवानी
डा० भागचन्द्र जैन 'भास्कर'
वह बाला अपनी छुटकी-सी पत्ते की झोपड़ी से बाहर जीवन मे पली-पुसी नन्दा आज फूस की झोपड़ी में गुजरनिकल गई और सारा दारिद्रय साथ ढोती हुई आगे बसर करनेवाली भिखारिन नन्दा थी। वढ़ती गई।
इधर गाव के बाहर रहनेवाली मा अपनी पाप की सुनन्दा जब से पेट मे आई, अजित का जीवन दुखी गठरी बाँधे निस्तेज पड़ी थी। उभरी हुई जवानी और रहने लगा। एक-एक करके सारी सम्पदा मुंह फेरने फिर सौन्दर्य का तकाजा । सूर्य का क्रोध भी उबलता जा लगी। सम्पदा की यह चंचलता प्रत्यक्ष देखी जा सकती रहा था और मा की पाखो से गर्म ऑसू अविरल रूप से थी। सोना भी भारी हो रहा था । सब कुछ चला गया। झरते जा रहे थे। प्रशान्त वातावरण में उसका मन धधक
__ मात्र रहा परिवार । अजित था कि वह यह जीवन वहन रहा था। यह धधकन क्यों और कैसे ?
न कर सका-अपने सुकुमार कदम इन बीहड़ परिस्थिप्रश्न जटिल नही था, फिर भी मन में बार-बार
तियो के कठोर कदमो से न निकाल सका। और एक माता था, चला जाता था। उत्तर मिल जाता था. पर दिन काली कोठरी के अन्दर चल बसा। रास्ता नही । नदी का पूर पाता था। मां नन्दा किनारे सुनन्दा छोटी थी पर समझदार थी। वह चार-पाँच खड़ी हुई अदृश्य चिन्तन करती रहती थी। कभी प्रात्म
ठिठुराते ठंठ और उबलते ग्रीष्म को अपने शिर से निकाल हत्या करने का विचार प्रा जाता अवश्य पर बह क्षणिक चुकी थी। इसलिए उसे गाँव के वे कटकाकीर्ण मार्ग और रहता।
विषम तथा चुभते हुए नदी-नाले नये नही थे । __ आत्महत्या जैसी घिनौनी और कोई चीज नही। मुंह को देखती दिखाती सुनन्दा गाव पहुंच चुकी। यह अपने उत्तरदायित्वो से पलायनवाद की मनोवृत्ति का वह तब तक भूख-प्यास से बेहद व्याकुल हो चुकी थी। प्रतीक मात्र है। जीवन संघर्षों की कहानी ही तो है। गाव से कुछ कहना चाहती पर सुननेवाला कोई नहीं था। इन संघर्षों से ऊब कर, विना उनसे लड़े, आहति दे देना सभी अनसुनी करते हुए बगल झाँकते निकल जाते । मूर्खता नही तो और क्या हो सकता है। पापो का प्राय- दुनिया इतनी प्रात्म-केन्द्रित हो चुकी कि उसे पड़ोसी श्चित्त तो भोगना ही पडेगा, चाहे मर के भोगो या का भी ध्यान नहीं। जिन्दा रह के।
__ कन्या मुंह पर आत्मनिवेदन लिए वढ़ती गई। एक समझदारी से भरे ये विचार नन्दा को पल-पल पर जगह देखा लोगों की भीढ ली थी। महल मे अच्छीसहारा देते । कठोर और घिनौने वातावरण मे भी उसे खासी दावत हो रही थी और दावत की पत्तले और ऐसी चिन्तनधारा से वल मिल जाता। लिहाजा वह अभी कुल्हड़ नीचे फेके जा रहे थे। शहनाई की आवाज में तक अपनी बेटी सुनन्दा को लिए जीवित थी।
यह फेके जाने की आवाज भैरव सगीत को उत्पन्न कर सभी के दिन सदैव एक से नही रहने । कभी उनमे देती थी। वसन्त पाता है तो कभी पतझड । नन्दा की कहानी हर सुनन्दा ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति का साधन पा प्राणी की कहानी थी। जवानी अवश्य उसकी अपनी थी। लिया । ऊपर से गिरती पत्तले और कुल्हडों की मार को
कहाँ उसका वह राजसी ठाठ और अब कहा यह वह अपने छोटे-से बदन पर भेलती जाती और जठनदारिद्रघ का फटा-टूटा टोकना ! राजमहल के ऐयाशी जाठन से पेट भरती जाती।