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________________ १७२, वर्ष २३ कि. ४ अनेकान्त यह बतलाता है कि नन्दलाल छावडा अपने पिता से भी अन्य भक्ति परक पदों का तुलनात्मक अध्ययन कर रहे हैं। अधिक विद्वान् थे। मन्दिरो को केन्द्र बनाकर जिन विद्वानों ने साहित्य निगोत्यों का मन्दिर चौकडी घाट दरवाजा मे स्थित की महती सेवा की थी उस कडी के अन्तिम विद्वान् थे है । इस मन्दिर का निर्माण एक विद्वान् श्रावक पं० सदासुख जी कासलीवाल । ये जैन ग्रन्थों के अपार ऋषभदास निगोत्या द्वारा कराया गया था, जो ज्ञाता थे तथा साहित्य निर्माता भी थे। तत्त्वार्थसूत्र की प्राकृत, सस्कृत एव हिन्दी के अच्छे विद्वान् थे । अर्थप्रकाशिका टीका एवं रत्नकरण्डश्रावकाचार की भाषा मूलाचार की भाषा टीका इन्होंने इसी मन्दिर मे बैठ टीका इनको प्रमुख रचनायों में से है। साहित्य निर्माता कर समाप्त की थी। इनके तीन पुत्र थे मानजीराम जी, के साथ-साथ ये वक्ता भी अच्छे थे। इनके प्रवचनो को दौलतराम जी एव पारसदास जी। ये तीनो ही भजना- सुनने के लिए श्रोताओं की अपार भीड लगती, इसलिए नन्दी थे। पारसदास विशेष पडित थे। तथा इनकी इन्हे प्रात: और साय तीन मन्दिरो मे शास्त्र प्रवचन तत्कालीन विद्वानो मे अच्छी धाक थी। इन्होंने अपने करना पड़ता था। पंडित जी ने जो अपना परिचय दिया पिता के अतिरिक्त ५० सदासुख जी कासलीवाल से भी है वह निम्न प्रकार हैअध्ययन किया था। तेरहपंथी बडा मन्दिर मे ये प्रतिदिन डेडराज के वंश मांहि इक किञ्चित ज्ञाता। शास्त्र पढा करते थे। पारसदास जी ने ज्ञानसूर्योदय नाटक दुलोचन्द का पुत्र कासलीवाल विख्याता । की भाषा के अतिरिक्त कितने ही पदो की भी रचना की नाम सदासुख कहै, आत्म सुख का बह इच्छक । थी। पारस विलास मे इनकी लघु रचनाओ एव पदो का सो सुख वानि प्रसाद विषय ते भय निरिच्छक ।। सग्रह है। सार चौबीसी इनकी एक वृहद् रचना है। इसी तरह नगर के और भी मन्दिर है जो विद्वानों जिसका रचनाकाल संवत् १६१८ है। बड़ी प्रसन्नता की एब परितो के केन्द्र रहे---- इनमे होबियो का मन्दिर, जो बात है कि हमारे परम मित्र डा. गगागम गर्ग पारस- वनेट का मन्दिर, पार्श्वनाथ का मन्दिर आदि के नाम दास के पदों को लेकर डी. लिट् उपाधि के लिए हिन्दी के उल्लेखनीय है । मृणमूर्ति-कला में नैगमेष डा० संकटा प्रसाद शुक्ल, एम. ए., पो-एच. डी. अभिलेख में उन्हें भगवा नै कहा गया है। नेगमेष शिश-जन्म से संबधित देवता माने जाते हैं। एक श्वेताम्बर जैन कथा के अनुसार इन्द्र की प्राज्ञा से नगमेष ने ब्राह्मणी देवनन्दा के गर्भ से भगवान महावीर को हटाकर क्षत्राणी त्रिशला के गर्भ में स्थापना भी की थी। इस कथानक का चित्रण एक कुपाण कालीन मथुरा से उपलब्ध पापाण पट्ट पर प्राप्त है जिसमे अजमुखी नैगमेष एक आसन पर बैठे है । साथ ही प्रकित १. स्मिथ, वी० ए० दि० जैन स्तूप एण्ड अदर एन्टी क्वेटीज प्राफ मथुरा पृ० २५, न प्ले०१८ । नगमेप की उपासना का प्रचलन भारत में प्राचीन काल से है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद' के खिल भाग में पाया है। यह स्थलीपाक प्रादि से विधिपूर्वक पूजित होने पर शिशुओं के प्रति दयालु हो जाते है । नगमेप शब्द ('नेज' का अर्थ स्नान कराना तथा मेष का मेढा से है) का अर्थ उस मेप से लिया जाता है जिस पर शिशु २. ऋग्वेद, ३०.१ ।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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