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________________ जयपुर के दि० जैन मन्दिर देउरे बने पुर मैं अनेक । रको का इस मन्दिर से सीधा सम्पर्क रहा। बखतराम सोहत सुन्दर शिव विष्नु जैन । साह ने बद्धि विलास में निम्न दो भट्टारकों का उल्लेख तिनकी उपमा कहते न बने । किया है--- परमत के नर नारी प्रवोन । पट्ट दोय पाये मुनिराय, नगर सवाई जयपुर प्राय । निज धर्म माहि निति रहै लोन । इक खेमेन्द्रकीति गुनपाल, अटारहमे पन्द्रह के साल । तिन मांहि देहुरा इक विसाल । तिनकै पटिराज बुधिवान, सुरेन्द्रकीति तम हर भान। तह राजत नेम मन्नू दयाल । साल अठारह से तेईस, भये भट्टारक महामुनीस ॥ लसकरो नाम कहियत महान । पाटोदी के मन्दिर मे इन भट्टारको द्वारा सस्थापित मनु रच्यो विरंचि जू करि समांन । एक अत्यधिक महत्वपूर्ण ग्रथ सग्रहालय है। इसमें ढाई मधि चौरी प्रभु को प्रमांन । हजार से भी अधिक हस्तलिखित ग्रन्थो का संग्रह है। यहाँ अति बनी फटिक सम लखि पखांन । के ग्रन्थो की पूरी सूची एव विवरण राजस्थान के शास्त्र ता मांहि जटित है स्याम संग। भण्डारो की पथ सूची चतुर्थ भाग में प्रकाशित हो चुका मनु लसत नील मनि अति मुरंग। है। हिन्दी की प्रादि कालिक रचना जिणदत्त चरित की चित्राम बन्यौ तामैं अनूप । पाडुलिपि इसी भण्डार म लेखक को उपलब्ध हुई थी इन लखि भविजन पावत निज सरूप। भण्डारो की सैकड़ों कृतिया अत्यधिक महत्वपूर्ण है जिनका पंडित तहं राजत है कल्यान । प्रकाशित होना आवश्यक है । बहु तरक न्याय बांचत पुरान । ___ इसी तरह छोटे दीवान का मन्दिर ५० जयचन्द जी निज धर्म कर्म मैं सावधान । छावडा एव उनके पुत्र नन्दलाल छावड़ा की साहित्यिक विन धर्म बात जिनके न आन। गतिविधियों का केन्द्र रहा। उस समय के विद्वानो मे गुन कीरति इक मुनिवर महांन । नवलराम, डाल राम, मन्नालाल सांगाना के नाम उल्लेख तप करत अधिक जिनमत पुरान । नीय है । मन्दिर की प्रतिष्ठा सवत् १८६१ मे हुई थी। यह तो केवल एक मन्दिर का वर्णन है इसी तरह जिसका वर्णन स्वय जयचन्द छावडा ने अपनी सर्वार्थसिद्धि और भी मन्दिरो का वर्णन मिलता है। पाटोदी का वचनिका में निम्न प्रकार किया है। मन्दिर भट्टारको का प्रमुख मन्दिर रहा है। इसका निर्माण करी प्रतिष्ठा मन्दिर नयौ, चन्द्रप्रभ जिन थापन थयौ। जोधराज पाटोदी ने करवाया था। इसलिए धीरे-धीरे ताकरि पुण्य बढौ यश भयो, यह केवल पाटोदी के मन्दिर के नाम से ही जाना जाने सब जैननि को मन हरखधौ । लगा। वैसे प्रारम्भ मे इसका नाम प्रादिनाथ चैत्यालय ५० जयचन्द जी छावड़ा के पुत्र नन्दलाल छावडा था। आमेर से भट्टारक गादी का जब जयपुर में स्थाना- भी विद्वान् थे। अमरचन्द दीवान उनकी विद्वत्ता से न्तरण हुआ तो उन्होने इसी मन्दिर को अपना केन्द्र काफी प्रभावित थे इन्ही की प्रेरणा पाकर नन्दलाल जी बनाया। उनके आने के पश्चात् दिगम्बर समाज की वीस ने मूलाचार की भाषा टीका की थी। स्वयं प० जयचन्द पथ पाम्नाय की गतिविधियो का यह मन्दिर प्रमुख केन्द्र जी को साहित्यिक क्षेत्र में प्रविष्ट कराने का श्रेय इन्ही बन गया। वैसे यह एक पचायती मन्दिर भी है। यहाँ को है जिसका साभार उल्लेख पडित जी ने इस प्रकार भट्टारक गादी पाने के पश्चात् क्षमेन्द्रकीति (स० १८१५) किया है :सुरेन्द्रकीति (सवत् १८२३), सुखेन्द्रकीर्ति (स० १८९३) नंदलाल प्ररो सूत गुनी, बालपने ते विद्या सूनी। तथा नरेन्द्रकीति स० १६७६) का भट्टारक गादी पर पंडित भयौ बडौ परवीन, ताहू नै यह प्रेरणा दीन । पट्टाभिषेक हुआ। इस प्रकार करीब १०० वर्ष तक भट्टा- पिता द्वारा अपने पुत्र की विद्वत्ता की प्रशंसा करना
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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