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१७०, वर्ष २३ कि.४
अनेकान्त
लिए जयपर को देश के इतर प्रदेशो मे जैनपुरी कहते है। थी। उनके प्रमुख श्रोतामों में प्रजवराय जी, तिलोकउनके कहने में सचाई भी है क्योंकि जयपुर नगर में होने चन्द जी पाटनी, महाराम जी पोसवाल, त्रिलोकचन्द जी वाले विद्वानो ने प्रत्येक क्षेत्र में सारे देश की जैन समाज सोगानी, मोती राम जी पाटनी, हरिचन्द जी, चोखचन्द का नेतृत्व किया और साहित्य, संस्कृति एवं समाज सुधार जी, नेमचन्द जी पाटनी के नाम उल्लेखनीय है। में उनका पथ प्रदर्शन किया।
पंडितजी के कारण जयपुर नगर के श्रावकों में एक जयपर के ये जैन मन्दिर माहित्य एवं साहित्यकारो अद्भुत जोश फैन गया था और वे अपने धर्म एवं साहित्य के लिए वरदान सिद्ध हए। वे इनमें बैठकर अपनी ज्ञान के लिए सब कुछ करने को तैयार थे। उनके युग मे एक पिपामा को ही शान्त नही किया करते थे किन्तु वहाँ बार इन विशाल जैन मन्दिरों को राज्य सरकार की भोर नये-नये प्रथो की रचना करके विलुप्त, अज्ञात तथा से नष्ट करने की योजना ही नही बनी किन्तु अनेक जैन महत्वपूर्ण अन्थों को नष्ट होने से बचा लिया। वह युग मन्दिरों को नष्ट भी कर दिया गया। इस जघन्य कल्य में भाषा टीका का युग था इसलिए जयपुर के इन विद्वानों तत्कालीन राजगुरु श्याम तिवारी का प्रमुख हाथ था। बुद्धि ने पचासों ग्रन्थों की भाषा टीका करके देश में स्वाध्याय विलास में इस घटना का सक्षिप्त वर्णन किया गया
प्रति पर्व जाग्रति पैदा कर दी थी। इस जाग्रति की है। लेकिन दो वर्ष पश्चात ही जब महाराजा को वास्तहवा मारे देश में अत्यधिक शीघ्रता से फैली और समाज विक तथ्य का पता लगा तो राजगुरु को ही देश निकाला सभी वर्गों में अध्ययन एवं अध्यापन का प्रचार बढता दे दिया गया और जैन मन्दिरो का राज्य सरकार के बयानगर के विद्वानो की प्रशसा सारे देश में फैल खर्चे से निर्माण करवाया गया। गयी और देश के विभिन्न भागों से लोग इनके दर्शनार्थ फुनि मत वरप ड्यौड मैं थप्पो, पाने लगे।
मिलि सबही फिरि अरहंत जप्पौ। नगर के प्रथम विद्वान पं० दौलतराम जी कासलीवाल लिये देहरा फेरि चिनाय, का किसी विशिष्ट मन्दिर का संपर्क नहीं रहा । उन्होने दै अकोड प्रतिमा पधराय ॥१३०१ अपनी किसी भी रचना में वहां के किसी एक मन्दिर का नाचन कूदन फिर बहु लगे, नामोल्लेख नहीं किया । इनके पदमपुराण मे केवल इतना धर्म मांझि फिरि अधिके पगे। ही उल्लेख मिलता है कि नगर मे स्थान-स्थान पर मन्दिर पूजत फुनि हाथी सुखपाल, बने हुए है और उनमे प्रतिदिन सैकडो श्रावक पूजा पाठ प्रभु चढाय रथ नचत विसाल ॥१३०२ करते रहते है।
-बुद्धि विलास ठौर ठौर जिन मन्दिर बनें।
लूणकरण जी पांडया का मन्दिर पाडे लणकरण जी पूर्जे तिनक भविजन घने ।
का प्रमुख मन्दिर था। ये जन सन्त थे तथा साहित्य सेवा वैसे तेरहपंथी का बड़ा मन्दिर इनका प्रमुख मन्दिर में अत्यधिक रुचि रखते थे। इन्होंने अपने मन्दिर में होना चाहिए । महापंडित टोडरमल्ल की साहित्यिक एव शास्त्र भण्डार की स्थापना की थी जिसमें ५०० से अधिक सामाजिक गतिविधियो के प्रमुख मन्दिर थे वधीचन्द जी हस्तलिखित ग्रंथों का अच्छा संग्रह है। प्रायवेद ज्योतिष का मन्दिर एव नेरहपंथी बडा मन्दिर । मोक्षमार्ग प्रकाशक एव मत्र शास्त्र के ग्रंथो का भी यहाँ उल्लेखनीय की रचना वधीचन्दजी के मन्दिर मे बैठ कर की गयी थी। है । इसी तरह लश्कर का मन्दिर भी विद्वानों का लेकिन ये शास्त्र प्रवचन करते थे बडे मन्दिर में । इसी रहा है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बखतराम साह ने अपने तेरहपंथी मन्दिर में सामाजिक क्रान्ति की योजनाए बनती बुद्धिविलास की रचना इसी मन्दिर में बैठ कर की थी। थी तथा भाई रायमल्ल एव तत्कालीन विद्वानो से एवं कवि ने लश्कर के मन्दिर का निम्न प्रकार वर्णन किया हैदीवान रतनचन्द्र जी से इसी मन्दिर मे तत्वचर्चा होती
अब सुनिये भविजन बात ऐक,