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________________ जैन विद्वानों द्वारा रचित संस्कृत के शब्दकोश श्री अगरचन्द नाहटा मानव की कुछ विशेषताएं तो प्रकृति प्रदत्त है और शब्दकोशों में एकाक्षरात्मक शब्दों का संग्रह होता है। कुछ स्वयं उपाजित । जगत के प्राणियों में मानव को सर्व. संस्कृत भाषा में शब्दों का मुख्य प्रर्थ है स्वर, यद्यपि सामान्य श्रेष्ठ माना गया है। मन की मुख्यता होने से मानव रूप से व्यजन और स्वर दोनों प्रकार के वर्णों को अक्षर चिन्तन-शील होता है। प्रकृति प्रदत्त साधनों के अतिरिक्त कहा जाता है, परन्तु स्वर के सहयोग के बिना अकेले व्यंवह स्वयं प्राविष्कार भी करता है। जन में किसी प्रकार के अर्थ को व्यक्त करने की पाक्ति नहीं जीवन व्यवहार में भाषा की उपयोगिता निर्विवाद है और न ही किसी ध्वनि विशेष का उससे विस्फुट है। वैसे पशु-पक्षी भी ध्वनियों के उच्चारण द्वारा अपने होता है। एकाक्षरी शब्द का अर्थ है एक स्वर वाला भावों को व्यक्त करते है। पर मनुष्य ने अपने भावों को शब्द । इसी तरह द्वयक्षरी यावत् छ: प्रक्षरो वाले शब्दो व्यक्त करने के लिए जिस तरह भाषा का विकास किया का संग्रहात्मक कोश होते है । वैसा अन्य प्राणी नहीं कर पाए। वस्तुए असख्य है। संस्कृत भाषा की जैन विद्वानों ने बहुत बडी सेवा की उनको पृथक-पृथक रूप में जानने एव दूसरों को समझाने है। संस्कृत के व्याकरण के सम्बन्ध में जिस तरह जनों के लिए उनके अलग अलग नाम रखे गये है। इससे के अनेक ग्रथ है उसी तरह शब्दकोश सम्बन्धी भी बहुत असंख्य नाम व शब्दो का विकाप हो गया। तब भाषा सी रचनाएं प्राप्त है। जिनका सक्षिप्त परिचय इस लेख को व्यवस्थित करने के लिए व्याकरण के नियम भी बनाए में दिया जा रहा है। इनके अतिरिक्त भी कई ऐसे अन्य गये । इस तरह शब्दशास्त्र के दो मुख्य अग हो गये। है जिनमे शब्दों का संग्रह काफी परिमाण मे मिलता है। व्याकरण और कोष। व्याकरण शब्द की उत्पत्ति और प्राचीनतम जैन साहित्य प्राकृत भाषा मे है। भगवान उसके अर्थ द्योतक विविध स्वरूपो का विवेचन करता है की जन माता राना में उनके प्रवचनों को पौर कोश मुख्यतः शब्दों का अर्थ सूचित करता है। कोन । पय सूचित करता है। कान समझ सके, इसलिए (उनका विशेष विचरण मगध प्रदेश शब्द किस लिंग में व्यवहृत है, इसका भी सूचन कोश में के पास-पास हुप्रा प्रतः) अर्द्ध-मागधी भाषा मे उपदेश किया जाता है। शब्दकोश का प्राचीन नाम 'निघंटु' और भया। करी.. वर्षों तक जैनाचार्यों ने भी प्राकत परवर्ती नाम-नाममाला' भी पाया जाता है । को ही अपनाये रखा पर इसके बाद संस्कृत के बढ़ते हुए __ मुनि जिनविजय जी ने शब्दकोशो को तीन भागो में प्रभाव से प्रभावित होकर इस भाषा में भी वे रचनाएं विभक्त किया है-१. एकार्थक वाचक शब्दकोश, करने लगे। प्राचार्य उमास्वाति का तागर्थ सूत्र शायद २. अनेकार्थक वाचक शब्दकोश, ३. एकाक्षर सग्राहक जैनों की पहली सस्कृत रचना है। प्राकृत ग्रन्थों में जनशब्दकोश । एकार्थक वाचक शब्दकोश मे मुख्यतया उन प्रचलित शब्दो का बहुत बड़ा संग्रह है। एक-एक वान्द के शब्दों का संग्रह है जो एक ही अर्थ अथवा पदार्थ के अनेक पर्याय नामो का भी महत्वपूर्ण संग्रह मिलता है। वाचक है । अर्थात् समान अर्थ को प्रदर्शित करने वाले है। जिससे उस समय की शब्द समृद्धि का भली भांति परिचय भनेकार्थक वाचक शब्दकोषो में वे शब्द संगृहीत होते है- मिल जाता है। संस्कृत में रचना तो जैन विद्वानों ने जो एक से अधिक अर्थ अथवा पदार्थ व्यक्त करते है। दूसरी तीसरी शताब्दी से ही प्रारम्भ कर दी और च।। ये नानार्थक वाचक भी कहे जाते है। एकाक्षर सग्राहक पांचवीं शताब्दी मे तो प्राचार्य समंतभद्र और सिद्धनसे
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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