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________________ ११४, वर्ष २३, कि०३ अनेकान्त ऐसी पौनलखदेश की भूमि रूपी स्त्री (के भाल) पर स श्रीकुमारः सुकुमारभाषा पीयूषवर्षी तवपत्यमासीत् ॥१७ विलक स्वरूप नलपुर नाम का नगर है। अर्थ :-उन (साढदेव) की मृदुवाणी से अमृत की विशेष-पक्ष्मलम्होरेदार-शराबी-मत्त, प्रक्षिप्रांखों वर्षा करने वाला श्री कुमार नाम का पुत्र था जो लोक में वाली, प्रमदा-स्त्री। प्राशाधर जी ने मनगार धर्मामृत की भप-भीतों का बंधू होते हुए भी स्वयं प्रभीक भाव (निर्मप्रशस्ति में 'सपादलक्ष विषय' का उल्लेख किया है (श्री यता) को प्राप्त था। मानस्ति सपादलक्षविषयः शाकम्भरी भूषणः) सवालखदेश (विशेष-पीयूषवर्षी का मर्थ चन्द्रमा भी होता है। -जोधपुर नागौर इलाका (साभर भी पहिले इसी में उसके साथ ये सब विशेषण इस प्रकार लागू होंगेचा)। इसी तरह यहाँ 'पादोनलक्ष विषय' पौनलख देश सुकुमार-कोमल ठंडी भाषा-किरण से अमृतवर्षा करने समझना चाहिए इसमे सवा की बजाय पौन भाग ही है)। वाला। श्री कुमार शोभा चांदनी वाला। भीरुबंधु-डर(मालिनी छद) पोकों का बधु अधेरा भय उत्पन्न करने वाला है, चंद्रोदय होते ही अघकार का भय समाप्त हो जाता है। अभीकप्रमरहित विकासः, प्रोतसच्चक्रवर्गः । भावं-कामभाव का करने वाला (कामियों को चांद परिचित घनपंक, नालसत्वं दधानः । चादनी बड़ी प्रिय होती है।) जयति भुवन लक्ष्मी विभ्रमागारभूमिः (रथोद्धता) कमल वन सनाभिसवालाऽन्ववायः ॥१५॥ नागणस्तदन तस्यनन्दनश्चन्वनरिव यशोभिरुज्ज्वलः । पूर्व पूरुष वियोगवेविनी मेदिनी शशिमुखी मुपाचरन ।।१५ अर्थ :-इसके बाद, असदिग्ध उन्नतिशील (सब । तरह से बढ़ा-चढा) सज्जनो का पानदकारी, प्रचुर-प्रगाढ़ अर्थ :-उन (श्री कुमार) के नागण नाम का पुत्र पाप और पालस्य को नही धारण करने वाला (पुण्यशाली था जिसने चन्दन के समान उज्ज्वल (श्वेत) यश से, पूर्व और उत्साही) सांसारिक लक्ष्मी को विलास-लीला का पुरुषों के वियोग से प्राकुलित पृथ्वी (प्रजा) को चन्द्रमुखी स्थान, कमलों का सहोदर (कमलकुल सदृश) जैसवाल -पाल्हादित कर दिया था। वंश जयवंत रहे। (उपचाति) कमल के पक्ष में इस प्रकार प्रर्थ होगा चेत: श्रिया केतकगर्भगोरं, गिरः शरच्चन्द्र सुधासधर्माः । भ्रमरो के हित मे है विकास जिसका, चकवा पक्षी शीलश्रिया मगल सौषमगं, राजलदेवी गृहिणी तबीया ।।१९ का प्रिय, सचित प्रगाढ़ कीचयुक्त, नालरूपी प्राण को अर्थ :-जिस प्रकार केवड़े का अंतरग भाग श्वेतधारण करने वाला, संसार लक्ष्मी की लीला भूमि । होता है उसी तरह हृदय से निर्मल, शरत्कालीन चांदनी (अनुष्टुप्) के समान अमृतवर्षी वाणी वाली, शील से मगल महल एतदश सुषाम्भोधि सुषादीषितिरुचयो। ऐसे अग वाली राजल्लदेवी उन (नागण) की धर्मपत्नी साढवेकः सुषोः पूर्वमपूर्वमतिवैभवः ॥१६॥ थी। अर्थ :-पहिले इस (जैसवाल) वंश रूपी क्षीर (अनुष्टुप्) समुद्र से अपूर्व बुद्धि सम्पन्न, विवेकी साढदेव रूपी चन्द्र तत्कुक्षिरोहण क्षोणी माणिक्यं द्योतते भुवि । उत्पन्न हुँप्रा । जैसिंह, क्षमापाल-सभा युवति भूषणम् ॥२०॥ (विशेष:-सुधाम्मोधि-क्षीरसागर। सुघादीधिति= अर्थ :-उन (राजल्ल देवी) की कुख से निकला चन्द्र ।) पृथ्वी रत्न तथा राजसभा रूपी युवति का भूषण ऐसा (उपजाति) जैत्रसिह संसार में प्रकाशमान (प्रसिद्ध) हुमा। मभीकभावं भुविभीषुर्यनाम कुर्वन्नपि यश्चकार । (क्रमशः)
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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