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भारतीय अनुमान को जैन तालिकों की देन
नुमानम्' परिभाषात्रों में केवल अनुमान के कारण का निर्देश है, उसके स्वरूप का नहीं। उद्योतकर की एक अन्य परिभाषा 'लैङ्गिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्' मे भी लिङ्गरूप कारण का उल्लेख है, स्वरूप का नही । दिङ्नागशिष्य शङ्करस्वामी की 'अनुमानं लिङ्गावर्थदर्शनम्' परिभाषा मे यद्यपि कारण और स्वरूप दोनों की अभिव्यक्ति है, पर उसमें कारण के रूप में लिङ्ग को सूचित किया है, लिङ्ग के ज्ञान को नहीं । तथ्य यह है कि प्रज्ञायमान घूमादि लिङ्ग पनि प्रादि के धनुमापक नहीं है। प्रत्यचा जो पुरुष सोया हुआ है, मूच्छित है, गृहीतव्याप्तिक है उसे हुप्रा भी पर्वत मे घूम के सद्भाव मात्र से प्रग्नि का धनुमान हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है अतः शङ्करस्वामी के उक्त अनुमान के लक्षण में 'लिंगात' के स्थान मे 'लिङ्गदर्शनात्' पद होने पर ही वह पूर्ण अनुमान लक्षण हो सकता है ।
जन तार्किक प्रकलङ्कदेव ने जो अनुमान का स्वरूप प्रस्तुत किया है वह उक्त न्यूनताथो मे मुक्त है उनका लक्षण है
लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनियो लक्षणात् । लिङ्गषीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ॥
इसमें अनुमान के साक्षात् कारण - लिङ्गज्ञान का भी प्रतिपादन है और उसका स्वरूप भी 'तिङ्गिषी' शब्द के द्वारा निर्दिष्ट है। अकलङ्क ने स्वरूप निर्देश में केवल 'श्री' या 'प्रतिपति' नहीं कहा, किन्तु 'लिङ्गि श्री कहा है, जिसका अर्थ है साध्य का ज्ञान; और साध्य का ज्ञान होना ही अनुमान है। व्याय प्रवेशकार शमी साध्य का स्थानापन्न 'अर्थ' का प्रवश्य निर्देश किया है । पर उन्होने कारण का निर्देश अपूर्ण किया है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अकलङ्क के इस लक्षण की एक विशेषता और भी है वह यह है कि उन्होंने 'तत्फलं हानाविबुद्धयः' शब्दों द्वारा अनुमान का फल भी निर्दिष्ट किया है । सम्भवतः इन सभी बातो से उत्तरवर्ती सभी जंन ताकिको ने प्रकलङ्क की इस प्रतिष्ठित मौर पूर्ण प्रनुमान- परिभाषा को ही अपनाया। इस अनुमान लक्षण से स्पष्ट है कि वही साधन प्रथवा १. लघीयस्त्रय का० १२ ।
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लिङ्ग लिङ्गि (साध्य ग्रनुमेय ) का गमक हो सकता है जिसके विनाभाव का निश्चय है। यदि उसमें मविनाभाव का निश्चय नहीं है तो वह साधन नहीं है, भले ही उसमें तीन या पाँच रूप भी विद्यमान हो जैसे 'बस मोह लेख्य है,' 'क्योंकि पार्थिव है, काष्ठ की तरह इत्यादि हेतु तीन रूपों पौर पाँच रूपों से सम्पन्न होने पर भी अविनाभाव के प्रभाव से सद्धेतु नहीं है, अपितु हेत्वाभास है और इसी से वे अपने साध्यों के अनुमापक नही माने जाते । इसी प्रकार 'एक मुहूर्त बाद शकट का उदय होगा, क्योंकि कृतिका का उदय हो रहा है,' 'समुद्र में वृद्धि होना चाहिए अथवा कुमुदों का विकास होना चाहिए, क्योंकि चन्द्र का उदय है' प्रादि हेतुनों मे पक्षधर्मत्व न होने से न त्रिरूपता है और न पचरूपता । फिर भी श्रविनाभाव के होने से कृतिका का उदय शकटोदय का और चन्द्र का उदय समुद्रवृद्धि एवं कुमुद विकास का गमक है ।
हेतु का एक लक्षण (अन्यथानुपपन्नत्व) स्वरूपहेतु के स्वरूप का प्रतिपादन अक्षपाद से प्रारम्भ होता है, ऐसा अनुसन्धान से प्रतीत होता है। उनका वह लक्षण साधर्म्य और वैध - दोनों दृष्टान्तो पर श्राधारित है ।" श्रतएव नैयायिक - चिन्तको ने उसे द्विलक्षण, त्रिलक्षण, चतुर्लक्षण और पचलक्षण प्रतिपादित किया तथा उसकी व्याख्याएं की है कि वो साध्य प्रादि विचारकों ने उसे मात्र त्रिलक्षण बतलाया है। कुछ तार्किकों ने षड्लक्षण और सप्तलक्षण भी उसे कहा है, पर जैन लेखकों ने अविनाभाव को ही हेतु का प्रधान मौर एक लक्षण स्वीकार किया है तथा रूप्य, पांचरूप्य प्रादि को श्रव्याप्त और अतिव्याप्त बतलाया है, जैसा कि ऊपर अनुमान के स्वरूप मे प्रदर्शित उदाहरणों से स्पष्ट है। इस अविनाभाव को ही प्रत्ययानुपपन्नत्व अथवा धन्ययानुपपत्ति या श्रन्तर्व्याप्ति कहा है । स्मरण रहे कि यह अविनाभाव या अन्यथानुपपन्नत्व जैन लेखकों को ही उपलब्धि है, जिसके उद्भावक प्राचार्य समन्तभद्र हैं ।'
२. उदाहरणसाधम्र्म्यात्साध्यसाधन हेतुः । तथा वैधर्म्यात् । - न्या० स० १ १ ३४, ३५ ।
३. विशेष के लिए देखें, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ० ३७-४१ ।