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२०५, वर्ष २३ कि. ५.६
अनेकान्त
अवश्यम्भावी परिणाम यह हुआ कि उत्तरकालीन समग्र स्वीकृत प्रत्यक्ष पौर परोक्ष इन दो मूल प्रमाणों के प्रतिभारतीय तर्कशास्त्र उससे प्रभावित हुप्रा और अनुमान रिक्त अनुमान पृथक प्रमाण मान्य नहीं है। की विचारधारा पर्याप्त प्रागे बढ़ने के साथ मुक्ष्म से-सूक्ष्म प्रपित्ति अनुमान से पृथक नहीं-प्राभाकर पौर एवं जटिल होती गयी। वास्तव में बौद्ध ताकिकों के भाट्ट मीमांस क अनुमान से पृथक् अर्थापत्ति नाम का स्वतत्र चिन्तन ने तर्क मे पायी कुण्ठा को हटाकर पौर सभी प्रकार प्रमाण मानते है। उनका मन्तव्य है कि जहाँ अमुक अर्थ के परिवेशों को दूर कर उन्मुक्त भाव से तत्त्वचिन्तन की प्रमक प्रर्य के बिना न होता हा उसका परिकल्पक होता क्षमता प्रदान की। फलत: सभी दर्शनो में स्वीकृत है वहाँ अर्थापत्ति प्रमाण माना जाता है। जैसे "पीनोऽयं प्रनमान पर अधिक विचार हुपा और उसे महत्त्व देवदत्तो दिवा न भुंक्ते" इस वाक्य मे उक्त 'पीनत्व' अर्थ मिला।
भोजन के बिना न होता हुमा रात्रि भोजन' की कल्पना ईश्वरकृष्ण, युक्तिदीपिकाकार, माठर, विज्ञानभिक्षु
करता है, क्योकि दिवा भोजन का निषेध है । इस प्रकार पादि सांख्यविद्वानो, प्रभाकर, कुमारिल, पार्थसारथि
के अर्थ का बोध अनुमान से न होकर अर्यापत्ति से होता
की प्रभृति मीमासक चिन्तको ने भी अपने-अपन ढग स अनुः है। किन्तु जैन विचारक उसे अनुमान से भिन्न स्वीकार मान का चिन्तन किया है। हमारा विचार है कि इन नही करने । उनका कहना है कि अनमान अन्यथा नपपन्न चिन्तकों का चिन्तन-विषय, प्रकृति, पुरुष और क्रियाकाण्ड (अविनाभावी) हेतु से उत्पन्न होता है और प्रर्थापत्ति होते हुए भी वे अनुमान-चिन्तन से अछूने नही रहे। अन्यथानुपद्यमान अर्थ में। अन्यथानुपपन्न हेतु पोर श्रुति के अलावा अनुमान को भी इन्हे स्वीकार करना
अन्यथानपपद्य मान अर्थ दोनो एक है-उनमे कोई अन्तर पड़ा और उसका कम-बढ विवेचन किया है ।
नही है । अर्थात् दोनो ही व्याप्ति विशिष्ट होने से अभिन्न जैन विचारक प्रारम्भ से ही अनुमान को मानने पाये है। डा. देवराज भी यही बात प्रकट करते हुए कहते है है। भले ही उसे 'अनुमान' नाम न देकर 'हेतुवाद' या कि 'एक वस्तु द्वारा दूसरी वस्तु का प्राक्षेप तभी हो 'अभिनि बोध' सज्ञा से उन्होने उसका व्यवहार किया हो। मकता है जब दोनो में व्याप्यध्यापक भाव या व्याप्ति तत्वज्ञान, स्वतत्वमिद्धि, परपक्षदूषणोद्भावन के लिए उसे सम्बन्ध हो। देवदत्त मोटा है और दिन मे खाता नहीं स्वीकार करके उन्होंने उमका पर्याप्त विवेचन किया है। है. यहाँ अर्थापत्ति द्वाग रात्रि भोजन की कल्पना की जाती उनके चिन्तन में जो विशेषताएं उपलब्ध होती है उनम है। पर वास्तव में मोटापन भोजन का प्रविनाभावी होने कुछ का उल्लेख यहाँ किया जाता है
तथा दिन में भोजन का निषेध करने से वह देवदत्त के अनुमान का परोक्ष प्रमाण में अन्तर्भाव- अनुमान
रात्रिभोजन का अनुमापक है। वह अनुमान इस प्रकार प्रमाणवादी सभी भारतीय तार्किको ने अनुमान को स्वतन्त्र
है-'देववत्तः रात्रौ भुक्ते, दिवाऽभोजित्वे सात पीनत्वाप्रमाण स्वीकार किया है। पर जैन नाकिको ने उसे स्वतत्र यथानुपपत्तेः।' यहाँ अन्यथानुपपत्ति से अन्ताप्ति विव. प्रमाण नही माना । प्रमाण के उन्होने मूलतः दो भद माने क्षित है, बहियाप्ति या सकलव्याप्ति नही क्योकि ये हैं-(१) प्रत्यक्ष प्रौर (२) परोक्ष। इनकी परिभाषानों दोनो व्याप्तियाँ अव्यभिचरित नही है। अतः प्रर्थापत्ति (वेशद्य और प्रवेशद्य) के अनुसार अनमान परोक्ष प्रमाण
और अनुमान दोनो व्याप्तिपूर्वक होने से एक ही हैमें अन्तर्भूत है, क्योकि वह अविशद ज्ञान है और उसके
पृथक्-पृथक प्रमाण नही। द्वारा अप्रत्यक्ष प्रर्थ की प्रतिपत्ति होती है। परोक्ष प्रमाण
अनुमान का विशिष्ट स्वरूप-न्यायसूत्रकार प्रक्षपाद का क्षेत्र इतना व्यापक और विशाल है कि स्मृति, प्रत्य
की 'तत्पूर्वकमनुमानम्,' प्रशस्तवाद की लिङ्गदर्शनाभिज्ञान, तर्क, अर्यापत्ति, सम्भव, अभाव और शब्द जैसे अप्रत्यक्ष अर्थ के परिच्छेदक प्रविशद ज्ञानों का इसी मे.
संजायमान लैङ्गिकम्' और उद्योतकर की 'लिङ्गपरामर्शोsसमावेश है। मतः वैशद्य एवं प्रवेशद्य के प्राधार पर १. पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पृ०७१।