SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य है] । मथुरा के जियसत्तु पुत्र भिक्षु कालवेसिय को उसकी प्राप्त कर और वैरी को पराजित कर, उसने अपना शरीर अस्वस्थावस्था में मोग्गल पर्वत पर शृगाल खा गये थे। रस्म करा दिया [?] | जब वह गौ ठाण में प्रायोपगमन [म. ४६८] 1 गृहस्थ का पुत्र किढ़ी चोरी करना छोड कर रहा था, क्रूर सुबन्धु[सुबुद्धि] ने वहाँ सग्रहीत उपलों कर सुखी हमा था। [म. १०६] । जब माहार नही में भाग लगा दी। परन्तु चाणक्य उस भाग में जलता मिला तो भी किसि ने पूर्ण क्षमा भाव रखा था। [म. हुप्रा भी दृढ रहा और मोक्ष गया। [भ. १६२, म. ३६७] । सार्थवाह कुबेरदत्त भी रागाध होकर वेसियाण ४७८, सथा० ७३-७५] । चिलाइपुत्त एक धर्मनिष्ठ भिक्षु की तरह ही गम्यागम्य का सब विवक खो बैठा था और था और वह पूर्ण वैरागी था। रक्त-गांध पा कर चीटियो इसलिए अपनी पुत्री को हो उसने अपनी स्त्री बना लिया था ने उसे घेर लिया और उसके सिर को खाना प्रारम्भ कर भ० ११३] । कुम्भारकड नगर मे, खडय और उसके दिया। उनके खान से उसका सारा शरीर चालणी के शिष्य मिला कर ५०० साधू थे जो बड़े तपस्वी मोर समान छिद्र-छिद्र हो गया। ऐसा खाया होने पर भी उसने वैरागी थे। एक के सिवा सब घाणी मे पोल दिए गए, काई दुर्भाव उन चीटियो के प्रति अपने मन मे नही माने पौर सब ने यह सब कष्ट-परिसह समाधि मे रहत हुए दिया। फल स्वरूप उस केवलज्ञान प्राप्त हुमा और वह सहन किया और कुछ भी बुरा चितन नही करते हुए वह परम पद को पहुँच गया। [भ० ८८, म० ४२७-३०, पूर्ण शाति से मृत्यु को प्राप्त हुए और सर्वोच्च स्थान को सथा० ८६] । राजा जब एक श्लोक का पाद सुन कर पहुंच गए। [म०४४३, ४६५; सथा०५८-६०] । युवक मृत्यु के मुंह से बच गया और इसके बाद वह सफल भिक्षु भिक्षु कुरुदत्त व्रतोपासन के लिए वन मे ध्यान करते हए बन गया । फिर जिन-भाषित मूत्रो के वचनो को सुनने के गजपुर में भस्म कर दिया गया और उसके फल स्वरूप लाभ की बात को तो कहना ही क्या [भ.८७) । परिउसन सर्वोच्च पद प्राप्त किया [म० ४६२, सथा० ८५]| वाजका क भक्त हारवाहन न कचनपुर" निवासी धर्ममासक्ति से मुक्त भोर तपस्या से कृश एक साधु स्त्रियों परायण साहूकार जिनधम्म की पीठ पर पात्र रख कर के सहवास में रहने पर उसी प्रकार पतित हो जाता है किसी तापस को गरमागरम भोजन कराया। पात्र गरम कि जैसे कोश के गृह में रहने वाला साध हो गया था हा जाने से उसके शरीर के मांस का उतना ही प्रश पात्र [भ० १२८] । गंगादत्त, विस्सभूइ और चण्डपिंगल क्रोध के साथ उखड़ कर निकल गया। ससार से विरक्त हो घृणा मोर राग का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। कर साहूकार भिक्षु हो गया। उसने अनशन व्रत ले लिया [भ० १३७] । सभवतया दो गजसुकुमाल हुए हों । पहले और प्रत्येक दिशा मे मुख किए वह एक-एक पक्ष तक को तो उनके श्वसुर ने ही श्मशान भूमि" मे ही जला ध्यानस्थ खड़ा रहा । उसके घाव को पक्षियों और कीड़ो कर नष्ट कर दिया था। उनने पग्नि की ज्वाला को ने निरतर कुरेदा और वह यह परीषह शांति के साथ समाधि पूर्वक सहा और ध्यान से रंचमात्र भी बिचलित सहता रहा, यही मानते हुए कि नरक-यत्रणा से तो यह नहीं हुए। [म. ४३१-३२, ४६२] । दूसरे गजसुकुमाल कष्ट बहुत ही कम है और कर्मों का फल तो भुगतने से को नई गीली खाल की भांति सब पोर से खीच कर ही छुटकारा है। दो महीने के घोर परीषह सहन और जमीन पर कीलें ठोक दी गई थी, फिर भी वह विचलित तपस्या के अन्त मे वह जिनों का ध्यान धरता हपा घरानही हुमा पौर समाधिपूर्वक मरा [संथा० ८७] । राजा शायी होकर मृत्यु को प्राप्त हुमा [म. ४१२-४२३] । पहविडिसिया भी मरण काल में दृढ़ सयम में स्थिर रहा भोगोपभोगों की प्रासक्ति और प्राकांक्षा ही पात्मा को उसने सर्वोच्च पद पाया [म. ४४०-४१]। पाटलिपुत्र गिराती है जब कि उनकी उपेक्षा संसार से प्राण प्राप्त में सुप्रसिद्ध चाणक्य हिंसादि मूल पापों से विरत रहा १६ श्री उत्तराध्यननानि, बंबई, १६३७, के पृ० २३९-४० मौर इंगिनी मरण स्वीकार किया। उचित मान-सम्मान में अध्यक्ष १७ गाथा ३७ परकी नेमीचन्द्र की टीका १५ तुलना करो वही, ३रा वर्ग। में सनत्कुमार का कथानक देखो।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy