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________________ प्रात्म-समर्पण चार सुनने को प्रातुर थी। नाना प्रकार के प्रश्न चन्दन में मिला देने का, मेरी प्राशाम्रो पर पानी फेर देने का' में पूछे जाने लगे पर वह कुछ न बोली । बस फूट-फूट कर राजुल मावेश में बोल रही थी। रो पडी। अरे कुछ कह भी तो गजकुमारी ने उसे 'बेटी नुम भूलती हो तीर्थकर नेमि का जन्म ही लोक ढाढस बघाते हुए कहा। कल्याण के लिये हुमा है' पिता ने उसे समझाया। नेमिकुमार विरक्त हो गये राजकुमारी, विवाहोत्सव 'पर में इसमें बाधक न होती' राजुल का तर्क था। रुक गया, चन्दन बड़े कप्ट से इतना कह सकी। "विवाह बन्धन मे फेसकर नेमिकमार लोक-कल्याण में 'बंधन में पड़े पशुमो को देखकर उन्हें कर्म बंधन की। असमर्थ हो जाते बेटी, पिता ने प्रागे कहा । स्मृति जाग उठी। उन्होंने लोक कल्याण का व्रत ले लिया' यह उनकी दुर्बलता होती। नारी नर की सभाचन्दन ने उत्तर दिया। बनायो को जाम करती है उन्हें उत्कठिन करती है । यदि राजकुमारी पर वज्रपात हुमा। इम दुस्समाचार से इतने पर भी कोई अपनी हानि कर बैठे तो इसमे दोष त्रस्त वह मूछित हो भूमि पर गिरने को ही थी कि किसका' राजुल का भावावेश प्रभी शान्त न हुमा था। सहेलियो ने सम्हाल लिया। मुझे माज्ञा दीजिये पिता जी, राजकुमारी राजुल ने 'ठीक कहती हो बेटी, पर अब संभव नही' पिता ने महाराज उग्रसेन के चरणो मे गिर कर प्रार्थना की। पराजय होने पर भी जीतने की चेष्टा की। 'तुम उन्हे कहा खोजोगी बेटी, पिता ने दुख भरी 'क्यो नही ! मैं उन्हें अवश्य खोज लूगी, उन्हे मुझे मास छोड़ते हुए कहा। अपनाना ही पड़ेगा। पशुमो की पुकार सुनने वाला क्या 'वनो में, पर्वतो, कन्दरायो में, जहा कही भी वे होगे' प्रानं विरहिणी की प्रान्तरिक वाणी न मनेगा? मैं उन्हें राजुन ने दृढता से उत्तर दिया। खोजूगी पिताजी, मुझे आज्ञा दीजिये' राजुल पिता के 'मार्ग दुर्गम है राजुल' पिता ने पुत्री को असमर्थता गले से लिपट गई। की ओर सकेत किया। 'तुम स्वतत्र हो बेटी, मेरा आशीर्वाद ले जायो' पिता 'पर मेरा निश्चय दृढ़ है, राजुल ने उत्तर दिया।' ने पुत्री को प्राशीर्वाद देकर विदा किया। 'इससे लाभ क्या? उन्हें जाने दो बेटी, अनेक परा- सघन वन पौर अगम पर्वत दृढ निश्चय के मागे क्रमी राजकुमार आज भी तुम्हारी अभिलाषा करते है, झुक गए थे, काटे फूल बन गए थे मोर मार्ग उसे उत्सा. पिता ने फुसलाना चाहा। हित कर रहा या । 'मैं तो अपने पिया को खोजगी' की प्रायं नारी पतिव्रता होती है पिता जी! हृदय ध्वनि वनो मोर पर्वत गुफामो मे पूज रही थी । पवन जिसकी उपासना करता है वही मार्य नारी का पति है। भी उसी लय में 'मैं तो अपने पिया को खोजू गी' का स्वर मैने नेमिकमार के चरणो मे अपना हृदय अर्पित कर दुहराता सा था । विरहिणी का विरह चागे मोर दिया है, प्रब शरीर किसी अन्य को कैसे समर्पित किया जा छा गया। सकता है। वह तो व्यभिचार होगा न? राजुल ने प्राज वह उसे खोज रही थी जिस पर उसने अपने उत्तर दिया। को अर्पित कर दिया था, प्रतिदान की प्राशा न करते पर नेमिकुमार तो विरक्त हो गए ये तुम्हें स्वी- हए जिसे सर्वस्व भेट कर दिया था, ममता, करुणा, कार करेगे ?' पिता ने आगे कहा। .. वात्सल्य प्रादि सभी मानवी गुणों को जिस पर सतपित ___'म तो विरक्त नही हुई। दो जीवन के पारस्परिक कर दिया था पर उस निर्मोही ने सब कुछ ठुकरा दिया, सहयोग का नाम ही तो विवाह है पिताबी। मेरी मम्मति नारी के पात्म-समर्पण का उसने कोई मूल्य न पाका, के बिना इस सहयोग की डोर को काट देने वाले से पलभ्य मम्पत्ति पाकर भी वह उसे त्याग कर चला पूछुगी कि तुम्हे क्या अधिकार है मेरे जीवन को धूलि गया।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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