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________________ ७८ वर्ष २३ कि० २ 'स्वामिन् में आ पहुंची विरक्त नेमिकुमार के चरणो में गिर कर राजुल ने प्रार्थना की। 'शुभे ! तुम कौन हो ?' शान्त स्वर में नेमिकुमार ने प्रश्न किया। 'वही जिसकी रक्षा का भार श्रापने लिया था, मै राजुल हूँ मेरे देवता' राजुल ने उत्तर दिया। 'राजुल तुम यहां !' आश्चर्य से देखा नेमिकुमार ने । 'तुम्हे खोजते खोजते मा पहुंची मेरे रक्षक, मार्य नारी की शरण उसका पति ही होता है, राजुल ने निवेदन किया । तुम भूल रही हो राहुल, में तुम्हारा पति नहीं, मैं किसी का कुछ नही । सासारिक सम्बन्ध श्रसत्य है देवी, मुझे क्षमा करो' नमिकुमार बां मैने तुम्हे हृदय सौपा था, अब तुम्हे कैसे स्वामी, राजुल ने प्रार्थना की। पर तुमने नारी को न समझा नाथ ! उसे विलास atra की रानी ही माना, अपनी साधना की बाधा माना । यह तुम्हारा भ्रम था । नारी का श्रात्म समर्पण सुख और दुख, महल और वन, विलास और विराग में सर्वत्र एक सा है देव! तुम मुझसे पूछते तो कि तुम इन सघन वनो 'भूलना होगा भद्रे ! सत्य की खोज करो' नेमिकुमार मे मेरा साथ दे सकोगी ? मैं उत्तर देती श्रवश्य! राजुल ने उत्तर दिया । शान्त श्वर में कह रही थी । भूलू मेरे असंभव है नाथ ! आप पुरुष है, स्वतंत्र है, पर मं स्त्री हूँ, अधूरी हू । मेरे तो आप ही सब कुछ है, मुझे धरण दीजिये राजुल मिकुमार के चरणों में गिर पड़ी। 'तुम्हारा मोह तीव्र है राजुल लौट जाओ ।' नेमिकुमार ने कहा । 'यह तुम कहते हो, हो तुम कह सकते हो मेरा हृदय तोड़ने वाले पुरुष तुम्हारे ही मुख से ये वचन सभव है पर में तुम्हें नहीं छोड़ सकती' राजुन ने अपना निश्य जता दिया । विवाह देषि ने लोक-कल्याण का व्रत लिया है नेमकुमार ने अपनी विवशता बतलाई। अनेकान्त 'वही व्रत मुझे भी दीजिये' भाचल पसार कर राजुल ने व्रत-दीक्षा की याचना की । नेमकुमार ने पाहचर्य से उसकी ओर देखा, क्या तुम सच कह रही हो ? उन्हें विश्वास न हुआ । 'नारी की क्रियाये दम्भ नहीं होती स्वामिन्! वह सच्चे हृदय से कार्य करती है। विलास में पती नारी संयम और साधना की महत्ता अच्छी तरह समझती है' शत्रुन रो रही थी, तुमने मुझे धोखा दिया, तुम लोक कल्याण का व्रत लेकर स्वार्थी ही रहे । मेरी रक्षा का भार स्वीकार करके भी तुमने मेरी रक्षा से मुख मोड लिया, स्वय तो ससार समुद्र तर ने चल दिये पर मुझे इसी बीच खड़ा रहने दिया, राजुल फूट-फूट कर रोने लगी । 'भद्रे ! तुम सच्ची हो' नेमिकुमार ने प्रशान्त स्वर में कहा । 'तुम पन्य हो देवी मेमकुमार बोले । 'अब तो मैं स्वयं आ पहुची नाथ, आपकी शरण ही ससार मे मुझे अन्यतम वरदान है। आप मुझे स्वीकृत कीजिये, मैं आपकी शिष्या बनूगी, हाथ जोड़ कर राजुल ने प्रार्थना की। तुम दीक्षा के योग्य हो नेमिकुमार ने हर्ष पूर्वक राजुल को दीक्षित किया । 'अन्त मे आपको अपनाना ही पडा नाथ' मेरा आत्म समर्पण सफल ही हुधा, राजुल ने मुस्कराते हुए कहा । 'हा देवी' नेमकुमार ने उत्तर दिया। उपयुक्त अवसर यही था देव' राजुल ने उनके चरणों में मस्तक झुका दिया । गिरनार के शिखर पर दो तपस्वी साधना कर रहे हैं, एक प्रोर दिगम्बर नेमिकुमार और दूसरी ओर एक स्वेत वस्त्र पारिणी धाविका राजुल । v
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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