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________________ भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य १०६ प्रयत्न सदा ही करते रहे हैं । इसीलिए वे बार-बार उन्हीं कहानी से दिया जाता है वह इन घटनाओं में निबद्ध या भावों को वैसी ही कहानियों में दोहगते भी रहते है और निहित नही है कि जिस तरह कहानी कही गई है अपितु उन्हें कार्य-कारण सम्बन्ध एवम् प्रेरणा की मनोवैज्ञानिकता उस व्याख्या मे है कि जो कथा के अन्त में केवली स्पष्ट का कोई भी विचार नहीं है। उनकी कहानियाँ बौद्ध करते हैं। यह केवली ही बताता है कि जो कुछ दुर्भाग्य विशिष्ट-गुणी होती है न कि भारतीय विशिष्ट-गुणी। इस कथा के विभिन्न पात्रों का हा, वह उनके बुरे कर्मों भारतीय वर्णनात्मक कला की लाक्षणिक है जैन के कारण था और इसी तरह जो उनका सौभाग्य हुआ, कहानियां या कथाएं। उनमे भारतीय जनता के सभी वह उनके अच्छे कर्मों के कारण था कि जो उनने पूर्व भवों वर्गों के जीवन और रीति-रिवाजों का वर्णन ही नही है मे किए और कराये थे। इससे स्पष्ट है कि धर्म और अपितु वह यथार्थता के बिलकुल अनुरूप भी है। इसीलिए नीति सिखाने की यह शैली या रीति प्रत्येक कहानी में बैन साहित्य, भारतीय साहित्य के महान् पुज मे, न केवल लागू हो सकती है फिर वह चाहे जैसी ही हो, क्योकि लोक-साहित्य का ही (उसके अत्यन्त व्यापक अर्थ में भी) प्रत्येक मनोरंजक कहानी मे वे जीव जिनकी घटनाएं अपितु भारतीय संस्कृति के इतिहास मे भी अत्यन्त मूल्य- उममे वर्णन की जाती है, अवश्य ही अनेक उतार-चढ़ाव वान है। से गुजरना चाहिए। इस तथ्य का फन यह होता है कि __कहानी कहने की जनों की शैली बौद्धो की शैली से कोई भी कथक जैन साधु को किसी भी कहानी मे जैसी अति अनिवार्य कितनी ही बातों मे भिन्न है। उनकी कि परम्परा से वह प्राप्त हुई है, कोई भी फर-बदल करने मुख्य कथा पूर्व भव की कथा नहीं अपितु वर्तमान भव की की कभी आवश्यकता ही नहीं होती और इसीलिए जैन ही होती है। वे अपने धर्म-सिद्धान्त का प्रत्यक्ष रूप मे नही कथाए, बौद्ध ग्रन्थो में चली बातो कयासों की अपेक्षा अपितु परोक्ष रूप में ही उपदेश दे। है । उनकी कथानो लोक-कथानों की अधिकतम प्रामाणिक प्राधार है। मे भावी जिन या तीर्थकर को अभिनेता या पात्र नहीं जैन साधु, सिर्फ कहानी दोहरा देने वाने ही नहीं बनाया जाता है। थे, परन्तु कथापो के उत्पादक भी थे। उनने नई-मई यह स्पष्ट है कि ऐसी दशा मे जैन कथाकार पूर्ण कहानिया, पाख्यान, उपाख्यान अपनी उपदेशी पुस्तकों स्वतंत्र रह पाते है। चूकि उनका प्राशय अपनी कथानों के लिए रचे या आविष्कार किये है। मच तो यह है कि के पात्रों को धर्मानुसार आचरण कराने का सम्भवतया साहित्यिक कहानिया कहना उन्हे विशेष रूप से सिखाया नहीं रहता है इसलिए वे पुरानी कथाएं कहने में भी स्व. जाता था। इसलिए यह प्रावश्यक है कि संस्कृत, प्राकृत, मंत्र रहते हैं क्योंकि ये कथाएं साहित्यिक या जन-प्रवादी अपभ्रंश और उत्तर-अपभ्र श काल के हमारी माधुनिक परम्परा से उन्हें विरसे मे मिली हुई होती हैं। उनकी भारतीय प्रार्य भाषाओं के वर्णनात्मक जैन ग्रन्थों की सूक्ष्म कथाओं के पात्रो की प्रवृत्तियां धामिक है या अधार्मिक, परीक्षा, अध्ययन और सम्पादन, भारतीय जीवन, साहित्य उनके पात्र दुखी रहते हैं या सुखी, इससे इन कथको का और संस्कृति के हमारे ज्ञान को सुसम्पन्न करने के लिए कोई भी सरोकार नहीं है। क्योंकि जो धर्मोपदेश उस किया जाए। । सन् १६७१ की जनगणना के समय धर्मके | खाना नं. १० में जैन लिखाकर सही आंकड़े |इकट्ठा करने में सरकार की मदद करें। -
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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