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६०, वर्ष २३ कि० २
अनेकान्त
ऐतिहासिक है। इस वर्ग में सस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश पीढ़ियो ने इन्हे किसी भी तरह भुलाया नही है। हम की अनेक कथा, चरित्र और पाख्यान मन्निविष्ट है। देखने है कि नन्दीमूत्र भी प्रभावक युगप्रधानों का इनके लेखक का ध्येय घटना-वर्णन मात्र है और उनकी स्मरण किस श्रद्धा के साथ किया गया है। हरिवश और शैली महाकाव्य की है। गद्यचिन्तामणि, निलकमजरी, कथावलि में भी महावीर के बाद के अनेक प्राचार्यों का यशस्तिलकचम्पू ग्रादि ऐसे द्रष्टव्य उदाहरण है जो उच्च उल्लेख है । ऋपिमंडल जैसे स्रोत में भी महान सतो के काव्य योग्यता और अलकारी भाषा के उत्तम नमूने नाम गिनाए गये है। बाद की सदियों में इन सब तत्वो ने हैं। जैन साधु का यह अनिवार्य गुण कहा और माना मिल कर खुब ही साहित्य रचवाया है। परिशिष्टपर्व, जाता है कि वह अनेक कथाए कह सके। स्वभावतः ही प्रभाक्क चरित्र और प्रबन्धचिन्तामणि ऐसे ही साहित्य के काध्य झकाववाले अनेक जैन मुनियो ने साहित्य की इस उत्तम नमूने है । यह सत्य है कि इतिहासज्ञ को इनकी शाखा को प्रचूर साहित्य प्रदान किया।
अनैतिहासिक परिस्थितियों में से तथ्य खोज निकालना भारतीय साहित्य में एक तीसरे नमूने ने भी मनो- पड़ता है । महान प्राचार्यों की ही भाति जैन पवित्र तीर्थों रंजन पथ अकित किया है। और वह रोमानी शैली की का भी तीर्थकल्प जैसे ग्रथो मे गौरवगान किया गया है।
Hशा है। पादलिप्त का प्राकृत 'तरगलोला' ग्राज सबसे अन्तिम श्रेणी या वर्ग में कथाकोश या कथाअप्राप्य है, परन्तु 'तरगवती नाम से उसका सस्कृत सार
सग्रह है। हमने ऊपर देख ही लिया है कि कुछ पागम,
र यह प्रकट करता है कि मूल ग्रन्थ में अवश्य ही महान् ।
नियुक्ति, पइन्नय, पागधना शास्त्र आदि, औपदेशिक साहित्य गुण रहे होगे। फिर समराइच्च कहा है जो एक
दार्टान्तिक कहानियों का, प्रादर्श जीवनियो और वैरागी सुन्दर गद्य रमन्यास है और जो श्री हरिभद्रमूरि के
कथानो का, किस प्रकार उल्लेख करते है। उपदेशमाला, साहित्य और काव्य गुणो द्वारा रचा गया है। इसमे ऐसे
उपदेशपद आदि जैसे अन्य ग्रंथों ने भी यही परम्परा चालू परम्परागत नामो की हारमाला दी गई है कि जिनने
रखी है। इससे टीकाकारों को उनकी कथानो का पूर्ण निदान द्वारा अपना ससार-भ्रमण अत्यन्त बढ़ा दिया था।
विवरण देने की आवश्यकता हुई। कहीं-कही सस्कृत बहुत चतुराई और सावधानी से गूथा हुग्रा, सिद्धपि का
टीकायो मे पुरातन प्राकृत कथाए भी सुरक्षित कर दी जटिल रूपक, उपमितिभवप्रपचकथा, को भी इसी श्रेणी में
गई है। टीकाकारों ने ही कही-बही प्राचीन सामग्री के रखा जा सकता है। अन्यधर्मों के सिद्धान्तो और पुराण
प्राधार से, गद्य, पद्य या मिश्रित शैली में संस्कृत में ये कथामो का दोष बताने के लिए भी कभी-कभी काल्पनिक
कथाए लिखी है । इसने कतिपय टीका-ग्रथो को कथाओं कथाएं रची गयी है । यह प्रवृत्ति वासुदेवहिण्डी के प्राचीन
का महान संग्रहालय ही बना दिया है । हमे ज्ञात है कि काल तक में भी स्पष्ट दिखलायी पडती है । सीधीसादी
ग्रावश्यक, उत्तराध्ययन आदि की धनेक टीकाए इन रोति हो तब पादिरी गई था। हारभद्र का पूताख्यान कथाओं से पूरी सम्पन्न है । इन कथाम्रो का एक निश्चित और हरिषेण, अमितगति और वृत्तविलास की धर्मपरीक्षा धार्मिक वृत्ति का प्रचार करना ही लक्ष्य है और इसी ने यह बता दिया है कि हिन्दू पुराण की अविश्वस्त लिए उपदेशक और प्रचारक अपने भाषणो, व्याख्यानो, जीवन-कथाओं का किस चतुराई से काल्पनिक कथा द्वारा धर्म-प्रवचनो में स्वतत्र रूप से बिना किसी विशेष प्रसग व्यग चित्र खीचा जा सकता है।
के भी इनका उपयोग कर सकते और करते है। पंचाख्यान अर्ध-ऐतिहासिक प्रबधो की एक चौथी श्रेणी या बर्ग जैसे कहानियो के जन सस्करण भी हुए है कि जो पचतत्र है। भगवान महावीर के बाद युग प्रधान प्राचार्य, अद्भुत जैसे ग्रथ के अग्रदूत थे। इसी प्रवृत्ति ने कथानो के छोटे सत, महान ग्रथकार, प्राश्रयदाता राजा और व्यापारवीर और बड़े सग्रहो को भी जन्म दिया कि जिनका सदर्भ कि जिनने जैन सध की भिन्न-भिन्न परिस्थितियो और ग्रथ की भांति निरन्तर उपयोग किया जा सके। कई सदियो मे अपूर्व सेवा की, हुए है। बाद में आने वाली प्राचार्य तो इन कथानो का अपने ही ढग से, मूल कथा