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________________ तिलकमजरी : एक प्राचीन कपा घोड़ों पर बैठ कर वे वहां पहुंचे। भोजनादि के पश्चात् तब मैंने महाशय मुनि से सुनी अपनी माता गन्धर्वसमर केतु ने हरिवाहन से हाथी के द्वारा अपहरण से पागे दत्ता की कथा (मर्थात् उसके माता पिता, उनके नगर में की कथा पूछी। हरिवाहन ने अपना लम्बा वृत्तान्त कहना विप्लव में हुआ उसका वियोग, उनसे पुनर्मिलम प्रादि प्रारम्भ किया। उसने कहा-जैसे ही मैंने प्राकाशगामी की) सुनाई। विचित्रवीर्य और उनके मंत्री को इससे उस मायावी हाथी को रोकने के लिए खड्गधेनुका स्पर्श विश्वास हो गया कि यह गन्धर्वदत्ता उन्हीं की अपहृत की, उसने चिंघाड़ कर अपने सहित मुझे नीचे स्थित पुत्री है । प्रातःकाल स्वस्थान को जाने के पूर्व विचित्रवीर्य अदृष्टपार सरोवर में गिरा दिया। मैं तैर कर किनारे ने एक विद्याधर को प्रादेश दिया कि वह राजकुमारियों लगा और कर्मशक्ति की प्रचण्डता को सोचने लगा । को सुन्दर स्थानादि दिखाये और उन्हें प्रलक्षितरूपेण निर्जन वन मे किसी भी व्यक्ति से पथ पूछने हेतु एक अपने अपने गृहों को भेज दे। दिशा की ओर चल पडा। चलते हुए मुझे मानुषपद तत्पश्चात् मन्दिर की छत पर चढकर मैंने एक पठा. श्रेणी दिखाई दी। उसके अनुसार चलकर एक एलालता- रह वर्षीय राजकुमार को समुद्र पर नाविकों सहित नाव गृह में पहुँचा । उसमें एक दिव्य कन्या थी। मुझे देखकर में अवस्थित देखा। उसे देखकर मुझे उसके प्रति अनुगग वह डर गई। उसे प्राश्वस्त कर अपना परिचय देकर मैने हुमा । वह राजकुमार भी मुझे देखकर कामपीड़ित हमा । उससे स्थान प्रादि का परिचय जानना चाहा किन्तु वह उसके नाविक तारक और मेरी सखी वसन्त सेना के बिना उत्तर दिए ही चली गई। माध्यम से हम दोनों ने अपने को एक दूसरे को समर्पित उसके चले जाने पर चित्र के अनुरूप उसका स्मरण कर दिया। इतने में उस विद्याधर ने भाकर मुझे पौर कर मैं अधीर हो गया और उसे तिलकमंजरी होना सभी सखियों को हरिचन्दन के तिलक लगाये और दिव्य निश्चय करके उसका अन्वेषण करने लगा | उसकी मालाएं पहनाई । तिलक लगते ही हम सब अदृश्य हो गई पदपंक्ति का अनुसरण करते हुए उसी मन्दिर मे जा और माला को मैंने ऊपर से ही नीचे अवस्थित राजकुमार पहुँचा और प्रादि तीर्थकर की स्तुति मे ध्यानमग्न होकर के गले मे वरमाला की भांति डाल दी। राजकुमार एक तापस कन्या को देखा । पूजन के पश्चात् उसने मेरा अत्यधिक प्रसन्न था। इसी बीच तारक ने कहा कि तुम्हारी हार्दिक प्रातिध्य किया। मैंने अपना वहाँ तक पहुँचने का प्रेयसी का मायावियों ने अपहरण कर लिया है । मुझे वहाँ वत्तान्त उसे सुनाया। उसके वृत्तान्त को श्रवण करने हेतु अवस्थित न देखकर राजकुमार ने शोकवश समुद्र में छलांग जब मैंने प्रश्न किया तो वह रोने लगी। पाश्वस्त करने लगा दी। उसी के साथ सभी नाविक भी डूब गये। अपने पर उसने कहना प्रारम्भ किया प्रेमी की इस अप्रत्याशित घटना को देखकर शोकविह्वल ____ 'मैं दक्षिण में कांची के राजा कुसुमशेखर और गर्व हो समुद्र मे कूद गई। दत्ता की पुत्री है। मेरा नाम मलय सुन्दरी है। जन्म के जब मेरी निद्रा दूर हुई तो मैंने अपने को अपनी उसी समय ही ज्योतिषी बसुरात ने कहा कि मुझसे विवाह शयनशाला मे पाया। सखी बन्धुसुन्दरी के माश्चर्य का करने वाला विशाल विद्याधर राज्य सम्पदा का उत्तरा- दूर करते हुए मैने उसे समस्त घटना सुनाई। उसने मुझे धिकारी होगा। एक बार शयनशाला से मेरा रात्रि मे प्राश्वस्त किया। एक युद्ध से त्रस्त मेरे पिता ने सन्धि के अपहरण हो गया। अनेक राजकुमारियों से मैं घिरी थी। हेतु मुझे वायुध को विवाहित करना चाहा। उस समामझे ज्ञात हमा कि विचित्रवीर्य चक्रवर्ती, भगवान महावीर चार से खिन्न होकर मैने कामदेवोथान में फांसी लगाकर का निर्वाणोत्सव मनाने पाया है और नृत्य हेतु इन राज- प्रात्म हत्या करनी चाही। बन्धुसुन्दरी के प्रयास से बची कुमारियों का अपहरण कर लाया गया है। मेरी दिव्य हुई मैंने, जब अपनी मांखें खोलीं तब समरकेतु को देखा। नृत्य कला से विचित्रवीर्य को पाश्चर्य हुमा । अनन्तर बन्धुसुन्दरी ने मेरा उसे परिचय दिया। समरकेतु ने भी उसने मुझसे कहा कि मैंने यह नृत्य कला कैसे सीखी। अपने समुद्र से बचने, कांची में कुसुमशेखर की सहायता
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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