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________________ २३६, वर्ष २३, कि०५-६ अनेकान्त नायक तारक मेरे साथ था। अपना राजकार्य पूर्ण करके एक दिन अकस्मात् वैरियमदण्ड नामक प्रधान हस्ती जब एक बार मेरी सैन्य रत्नकूट नामक द्वीप पर विश्राम गजशाला से निकल गया और उसे वश में करने के सभी कर रही थी तब ही मुझे अद्भुत गीत-बादित्रों की ध्वनि उपाय निष्फल हो गए । करिसाधनाध्यक्ष के निवेदन पर सुन पड़ी। उसे सुनकर, उसके उद्भव का कारण जानने हरिवाहन ने अपने अद्भुत वीणावादन से उसे वश में की मुझे जिज्ञासा हुई। तारक के साथ नाविकों सहित, कर लिया और उस पर जा बैठा । ज्योंही उसने अंकुश रात्रि में ही, एक नौका द्वारा हम सबने उसी ध्वनि की मारा, हस्ती प्रत्यन्त वेग से बढ़ा और लाख प्रयत्नों के दिशा की पोर प्रस्थान किया। जैसे ही नौका उस ध्वनि पश्चात् भी न रुक सका और राजकुमार को लिए हुए के निकट पहुँची वह ध्वनि समाप्त हो गई। मुझे अपने अदृश्य हो गया। समरकेतु प्रादि को अत्यधिक दुख हुआ। इस अविचारित कार्य पर पश्चात्ताप हुमा। तब ही एक अन्त में हरिवहन के लिखे हुए एक पत्र से सभी को उसकी प्रभाराशि युक्त खेचर नरेन्द्र वन्द प्राकाश मार्ग से निकला। सुरक्षा के विषय में प्राश्वासन मिला। सम्मुख एक कांचन शिलामय दिव्य पायतन देखकर मुझे समरकेतु अपने मित्र के बिना एकाकी नही रह प्रसन्नता हुई। सकता था और उसे अन्वेषण करने के लिए वह एकाकी ___ मैंने निश्चय किया कि मन्दिर के भीतर अवश्य ही ही निरन्तर छह मास तक जंगलो, नगरो, पर्वतो पर कोई होना चाहिए। कुछ ही काल पश्चात कुछ सुन्दरी भटकता हुमा एकशृग पर्वत के निकटस्थ प्रदृष्टपार सरोवर कन्यायें उस मन्दिर के ऊपरी छ। पर दष्टिगोचर हई। पर जा पहुँचा। उसके शीतल एव सुगन्धित जल से उनके मध्य मे सविशेष रूप से सुन्दरी एक षोडशवर्षीया मायायित होकर वह सो गया। उसे स्वप्न में पारिजात कन्या थी।' समरकेतु इतना कह ही रहा था कि प्रतिहारी वृक्ष दिखाई दिया। उससे उसे मित्र के मिलने का शुभ एक दिव्य चित्रपट ले माई। उसने कहा कर्णामत के संकेत प्रतीत हुप्रा । तत्पश्चात् अश्ववृन्द की हेषाध्वनि पश्चात् ईक्षणामृत का स्वाद लीजिए और उसे हरिवाहन सुनाई दी। उसके उद्भव को जानने की कामना से वह के प्रागे बढ़ा दिया। हरिवाहन ने गन्धर्वक से उस चित्र उत्तर दिशा की ओर चल पडा। कुछ दूर चलने पर उसे में अकित राजकुमारी का परिचय प्राप्त किया। उनके एक मनोरम उद्यान, उसके भीतर कल्पतरु खण्ड मौर मध्य चित्रकला के विषय में मधुगलाप हए। चित्र में उसी के मध्य मे पराग शिलापो से निर्मित एक प्रायतन विजया की दक्षिण श्रेणी के चक्रवर्ती चमसेन की पुत्री दिखाई दिया। उसके भीतर चिन्तामणिमयी, महाप्रमाण, तिलकमंजरी अंकित थी। गन्धर्वक ने अपने दूरगमन का प्रादि तीर्थकर ऋषभदेव की प्रतिमा दृष्टिगोचर हुई। प्रयोजन कहकर राजकुमार से विदा ली और पुन दूसरे उसने बड़ी भक्ति से भगवान की स्तुति की। दिन आने को कह कर चला गया। उसे चलते हुए राज- अभी वह अपने पाश्चर्य मे ही डूबा था कि उसे कुमार समरकेतु ने काची नगरी मे राजकुसुम शेखर और हरिवाहन' नाम सुनाई दिया। बाहर निकला तो उसे गन्धर्वदत्ता की पुत्री मलयसुन्दरी को एकान में देने के लिए एक मठ दिखाई दिया। तत्पश्चात् गन्धर्वक मिला । एक पत्र भेंट किया। गन्धर्वक ने कहा अभी-अभी हरिवाहन को विद्याधरों का राजकुमार हरिवाहन ने दूसरे दिन गन्धर्वक के पाग- चक्रवर्तित्व मिला है । पाप भी उनके दर्शन करे । मन्दिर मन का पथ देखा, किन्तु वह न पाया। इस प्रकार कई के बाहर चारों पोर अजितादि तीर्थंकरों की चौबीसी मास निकलते गये और हरिवाहन तिलकमंजरी के विरह की वन्दना करके, लिलकमंजरी सहित बैठे हुए हरिवाहन से व्याकुल रहने लगा । अन्त में देशदर्शन की प्राज्ञा लेकर से समरकेतु ने भेंट की। वह मित्रों सहित वर्षों के पश्चात् अयोध्या से बाहर निकल तत्पश्चात उत्तर श्रेणी के विद्याधरों की राजधानी पड़ा। चलते-चलते वह कामरूप देश में जा पहुँचा और गगनबल्लभनगर में प्रवेश के लग्न की सूचना विराध लोहित्य नदी के तट पर स्कन्धावार डाल दिया। नामक नर्मसचिव ने दी। उसे श्रवण कर अपने-अपने
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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