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तिलकमञ्जरी: एक प्राचीन कथा
डा० वीरेन्द्रकुमार जैन
धनपाल (११वीं शती) कृत तिलकमंजरी प्राचीन संस्कृत गद्य साहित्य की एक महत्वपूर्ण कृति है। काव्य शास्त्र की दृष्टि से यह कृति जितने महत्व और उपयोग की है, उससे भी अधिक महत्व और उपयोग की इसलिए है क्योंकि इसमे प्राचीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास की प्रचुर सामग्री उपलब्ध होती है। पिछले वर्षों में तिलकनंजरी पर दो शोध-प्रबन्धों पर पी० एच० डी० मिली है तथा एक और तैयार हो रहा है
१. तिलकमंजरी का श्रालोचनात्मक अध्ययन डा० वीरेन्द्रकुमार जैन, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन, १६६६, स्वीकृत, श्रप्रकाशित ।
२. धनपालकृत तिलकमजरी का श्रालोचनात्मक अध्ययन : डा० जगन्नाथ पाठक, हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, १९६६, स्वीकृत, अप्रकाशित ।
३. ए क्रिटिकल स्टडी आफ तिलकमजरी ग्राफ धनपाल : श्री एस० के० शर्मा, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय ( तैयारी में)
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इन प्रबन्धों के प्रकाशित होने पर तिलकमंजरी की महनीय सामग्री का उपयोग हो सकेगा । अभी तक तिलकमञ्जरी का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित नही हुआ इसलिए इसे व्यापक प्रसार नहीं मिला। यहाँ प्रस्तुत है तिलकमंजरी की संक्षिप्त कथा वस्तु उत्तर कोशल देश मे अवस्थित अयोध्या नगरी मे सार्वभौम ऐक्ष्वाकुवंशी राजा मेघवाहन थे और उनकी रूप गुण युक्ता पट्टरानी मदिरावती थी । सर्वसुख उन्हें सुलभ थे किन्तु निःसन्तानता से वे दुःखी थे । एक बार विद्याधर मुनि श्राकाश मार्ग से उनके भवन के ऊपर से निकले। राजा रानी की भक्ति से प्रसन्न मुनि ने उन्हे राजलक्ष्मी देवी की उपासना करने का उपदेश दिया । देवी की प्राराधना और अनन्य समर्पण से राजा को एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम हरिवाहन रखा गया । हरिवाहन को योग्य शिक्षा-दीक्षा दी गई और राजा उसके योग्य मित्र को खोजने को उत्सुक रहने लगे ।
एक बार जब वे राजसभा मे बैठे थे तब ही दक्षिणा पथ के सेनापति वज्रायुध का प्रधान राजपुरुष विजयवेग प्राया और उसने बालारुण नामक अगुलीयक राजा को भेंट किया। राजा ने बच्चायुध की कुवालक्षेम पूछीविजयवेग ने उसके उत्तर मे सेनापति और राजकुमार समरकेतु के बीच हुए प्रद्भुत युद्ध का विवरण सुनाया ।
उसने कहा कि आपसे भेंट करने हेतु वह नगर के बाह्यद्यान मे आया हुआ है । राजा ने हरदास नामक महाप्रतिहार को भेजकर समरकेतु को सादर बुलाया और उसका मादर सरकार किया। राजा ने हरिवाहन और समर केतु को अभिन्न मित्र बना दिया ।
दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। एक बार ग्रीष्म मे वे मत्तकोकिल उद्यान को गए । वहाँ पर उनकी गोष्ठी में मन्जीर नामक बन्दिपुत्र एक प्रेम पत्र ले भाया । उसपर एक भार्या लिखी थी। उसके विचार-विनिमय से सभी प्रसन्न थे किन्तु राजकुमार नमरकेतु को अपना प्रेमप्रसंग स्मरण प्राया और वह अत्यन्त खिन्न हुआ । हरिवाहन के द्वारा खिन्नता का कारण पूछने पर समरकेतु ने अपना कथन प्रारम्भ किया ।
'सिंहलद्वीप की रंगशाला नगरी मे चन्द्रकेतु नाम का राजा है। मैं उनका भद्वितीय पुत्र हैं । दृष्ट सामन्तो को दमन करने के लिए जल सेना को लेकर पिता ने द्वीपांतरों को भेजा था । मेरी सहायता के लिए सकल कैवर्ततंत्र का