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१६० वर्ष २३, कि० ४
अनेकान्त
स्थल मे ही मेरा जन्म हुमा था। इसलिए हे सनत्कुमार! नगरी से वहाँ व्यापाराथ पाया था। सनत्कुमार एवं तुम्हारे पिता मेरे पिता के निकटवर्ती और उपकारक हैं। वसुभूति उसी के प्रातिथ्य में रहे। (३) सनत्कुमार ने इस समय मेरे माने का प्रयोजन यह है कि माज राजा अपने पिता से पृथक् होने का कारण उसे बताया पौर जब अश्वारोहण मनोरंजन के कक्ष में गये और देखा कि कहा कि अब मैं अपने मामा से मिलने लंका जाऊंगा। रानी ने अपना मुख नाखून भादि से नौच कर कुरूप बना उसके मित्र के प्रातिथ्य के कारण पर्याप्त विलम्ब हो लिया है । भूमि पर लेटी हुई मांसू बहा रही है । उसको गया था। (१) चलत र
गया था। (४) चलते समय उसे एक नयनमोहन कम्बल सनत्कुमार ने मुझसे प्रेम प्रस्ताव किया था। भेंट दिया गया, जिसे प्रोढ़ने से उसे कोई न देख सकेगा। मैंने अपने शील की रक्षा की। उसी रक्षा-प्रयल में [तारांकित पृ० ३१७.१३-३२६.७]. उसके मित्र ने कहा मेरी यह दुर्दशा हुई है । राजा ने तुम्हे चुपचाप मारने की कि मंत्रशक्ति के द्वारा सिद्धसेन ने एक देवता को बुलाया माशा दी है मोर मैं चाहता कि तुम न मारे जानो। उसी यक्षगिरि देव ने यह कम्बल प्रदान किया है । (५-६) (१२-१३) मैं इस दुविधा में हूँ कि तुम्हें मारा जाय या सनत्कुमार ने कम्बल सधन्यवाद स्वीकार किया। समुद्रराजा की माज्ञा भग की जाय । मैं तुम्हारी निर्दोषिता के तट पर ईश्वरदत्त का सुन्दर जहाज तैयार था। ईश्वरदत्त लक्षण स्पष्ट देख रहा हूँ। तुम्ही बतानो कि मैं क्या ने मनोहरदत्त से कुशलक्षेम पूछा । (१०) राजकुमार करूं? [श्लोक पृ० ३१८.३-३२३.१२]. राजकुमार तथा वसुभूति उसी जहाज पर चढ़ कर लंका की प्रोर उस दुष्ट स्त्री के व्यवहार से बहुत उदास हुमा । (१५). प्रस्थान कर गये । (श्लोक पृ० ३२६.८-३३१.१३). एक दुष्ट व्यक्ति कुछ भी करने का साहस कर सकता है। प्रस्थान से तेरहवें दिन समुद्र में भारी तूफान पाया। (१६). यह राजा की कमजोरी है कि उसने रानी के मल्लाहों ने महान् प्रयत्न किया परन्तु कर्मवश कोई उपाय वचनों का विश्वास किया। यदि सत्यता प्रगट हो गई तो सफल न हुमा । एक काठ का फलक पर तैर कर सनत्कुराजा रानी को मार डालेगा। क्योंकि सभी तरफ से मार तीन दिन बाद किनारे पर पहुंचा। (११-१२) वह राजकुमार की निर्दोषता सिद्ध हो रही है। (१७-१८) कमा का
कर्मों की लीला पर विचार करने लगा। अपने प्रिय से विनयधर सब रहस्य राजा पर प्रगट करने को सन्नद्ध
वियोग मादि सभी बाते मन में विचरण करने लगीं। था। परन्तु राजकुमार ने कहा "यह सब मेरे कर्मों का
(१३-१४) वह जंगल में घूमते हुए एक प्राम्रवृक्ष के फल है।" (१९-२०) राजकुमार ने राजा के प्रादेश को
नीचे बैठा । उस वृक्ष पर एक सारस पक्षी का जोड़ा बैठा पालने के लिए विनयंधर से कहा। परन्तु विनयंधर ने
था उसकी मधुर ध्वनि सुनकर राजकुमार को विलासवती अपने और राजकुमार के लिए सुरक्षित मार्ग अपनाना
की स्मृति प्रा गई। उसका वियोग उसे प्रति व्यथित कर चाहा । राजकुमार उस स्थान से चले जाने के लिए सह
रहा था। (१५) विलासवती की स्मृति के विचारों में मत हो गया । वह पोताध्यक्ष समुद्रगुप्त के जलयान द्वारा डूबा हुआ सनत्कुमार ए
डूबा हुमा सनत्कुमार एक शिला पर पत्तों का बिस्तर वसुभूतिके साथ सुवर्णद्वीप जानेको प्रस्तुत हुमा । विनयंघर
__ बना कर सो गया। प्रातःकाल पक्षियों के कलरव से वह ने क्षमा चाहते हुए उन्हें विदा दी। (२०) [श्लोक पृ०
जागा । एक नदी के किनारे चलते हुए उसने रेत में किसी ३२३.१३-३७२.१२].
स्त्री के पदचिह्नों को देखा। उस चिन्हों का अनुसरण सन्धि तृतीय-जलयान समुद्र में सतरण करते हुए करता हुमा वह भागे बढ़ा। (१६-१७) एकान्त प्रदेश में दो मास में सूवर्णभूमि में पहुँच गये । मार्ग मे सनत्कुमार उसने एक तापस-बाला को देखा। उसके सुन्दर अगों का ने रानी का पाखण्ड और अपने कार्य की कहानी सबसे कवि ने विस्तार से वर्णन किया है। वह पुष्पगुच्छ से कह सुनाई और रानी का भेद वहाँ प्रकट न करने का शोभित थी। झाड़ी के पीछे छिपकर राजकुमार ने उसे मौचित्य सिद्ध किया। (१-२) वहाँ से श्रीपुर गये। वहाँ माकर्षित दृष्टि से देखा। (१८) उसके तापस वेष के उनका एक मित्र मनोहरदत्त मिला। वह भी सेयाविया अतिरिक्त उसे सर्व प्रकार वह रूप विलासवती का प्रतीत