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विलासवईकहा एक परिचयात्मक अध्ययन
हुआ। उसका सोया प्रेमभाव जाग उठा । अपने भाव को मेरे पति सहमा स्वर्ण सिंहासन से गिरकर मृत्यु को प्राप्त छिपाकर हाथ जोड़कर उसने उसे प्रणाम किया। अपना हा। मै शोक में डूब गई। शीघ्र ही मुझे प्रतीत हमा परिचय देकर परिभ्रमण का कारण बताकर उससे अपना कि मेरी नभ गामिनी शक्ति का भी नाश हो गया है। नाम, पाश्रम का नाम और तपस्या का कारण पूछा। (ण). निःसहाय होकर मै अपने भाग्य पर दुःखी हुई। उस बाला ने ससन्भ्रम से उसे देखा और नीचा मुह कर मैने दृश्य,अदृश्य सभी शक्तियो से सहायतार्थ प्रार्थना की। लिया । (१९). बिना कुछ उत्तर दिये वह वहां से चली तब मेरे पिता का मित्र एक तापस विद्याधर देवनन्दी वहाँ गई [श्लोक पृष्ठ ३३१.१४-३३५.११] राजकुमार ने आया। (५). उसने मुझे सान्त्वना प्रदान की और उपाय किसी अन्य व्यक्ति से उम बाला का परिचय प्राप्त करने हानि पर शोक न करने को समझाया । (६). मनुष्य का विचार किया। उसे उसने पुनः पाश्रम मे लौटते हुए जन्म को सफल बनाने के लिए मैंने उसमे तपस्वी का व्रत देखा । उसने अनुभव किया कि वह प्रेम से प्रासक्त है। घारण किया । (७). विदित हुअा कि सिद्धकूट पर्वत को उसने अधिक उत्सुक होना अयोग्य समझा । (२०). वह पार करते हुए मेरा हार गिर पड़ा था, उसी के परिणामनदी के किनारे पर पुनः वापिस लौट आया परन्तु वहाँ स्वरूप मेरी नभगामिनी विद्या की भी समाप्ति हो गई किसी व्यक्ति को न देखा। उसी रात को प्रातःकाल उसने थी । मेर पिता की प्राज्ञा से देवनन्दि मुझे स्वेतद्वीप मे स्वप्न में उस बाला द्वारा उसके गले में पवित्र पुष्पों का ले आया और अपनी तपस्वी शृखला मे समाविष्ट कर हार डालने का दृश्य देखा । सारसों की मधुर ध्वनि ने मुझे कुछ कार्य में नियुक्त कर दिया । एकदिन पुष्प और उसे प्रात:काल जगाया । स्वप्न एवं अन्य शुभ लक्षणो से समिधा की खोज मे मैं समुद्र की तरगप्रवाह के समीप राजकुमार जान गया कि किसी कन्या से उसका मिलाप पहुँच गई। (८). समुद्रतट पर तरगप्रवाह में सन्तरित होने वाला है । वह तापसबाला जिसका रूपसाम्य विलास एक काष्ठ फलक के पास मूच्छित पड़ी एक सुन्दर स्त्री वती से है, कहीं विलासवती ही तो नही है । जगल मे को देखा। (8). मैने कमण्डल का पानी छिड़का तो वह ढूढते हुए उसने कुछ दिन बड़े कष्ट से बिताए, परन्तु सब प्रबुद्ध हई । मैंने उसे धीरज बघाया । पाश्रम में साथ प्रयत्न निष्फल हुआ। (२१-२३). श्लोक [३३५.१२- लाकर कुलपति को सौंप दी। (१०). पूछे जाने पर ३३७-१२].
उसने कहा कि मैं ताम्रलिप्ति से पाई है, इससे अधिक मैं चतुर्थ सन्धि-माधवीलता से वेष्ठित एक प्राम्रतरु कुछ नही कहूँगी (क्योंकि सम्भवतः वह किसी उच्च कुल के नीचे सनत्कुमार विनासवती की स्मृति मे तल्लीन था, से आई है)। मैंने कुलपति से खबर प्राप्त की (११). तभी एक प्रौढ़ वय की तापसी वहाँ पाई । कवि ने तापसी [इलोक पृ० ३३८.८ ३४१-१२] कुलपति ने अपने देवीय (तपस्विनी) का अच्छा वर्णन किया है। राजकुमार ने ज्ञान से परिज्ञान कर कहा कि यह राजकुमारी विलास उसे प्रणाम किया, तापसी ने उसे प्राशीर्वाद दिया और वती है, यह राजकुमार सनत्कुमार के प्रति प्रेमासक्त है कार्यसिद्धयर्थ उसके सिर पर कमण्डल का पानी छिडका। विवाह से पूर्व ही दोनो प्रेमामक्त थे । इसे मालम हुमा (१) [श्लोक पृ० ३३७.१३-३३८.८-७]. तपस्विनी ने कि निर्दोष मनकुमार राजा की प्राज्ञा से मार दिया गया राजकुमार को अपने समीप बिठाया और उसकी बात है। (१२) राजा की प्राज्ञा से उसे अर्धरात्रि के समय सुनने को कहा। तापसी बोली-मैं वैताढ्य पर्वत पर राजमहल छोड़ना पड़ा और वह सनत्कुमार के शव को गन्धसमृद्ध प्रदेश के स्वामी सहस्रबल की रानी सुप्रभा की ढंढने निकल पड़ी। जिससे कि एकबार उसके दर्शन करके कुक्षि से जन्म लेने वाली मदनमंजरी नाम की पुत्री हूँ। फिर स्वय मृत्यु को वरण करले । परन्तु मार्ग में वह मैं पवनगति नामक विद्याघर से विवाहित हुई थी और डाकुओं द्वारा पकड़ी गई उन्होने उसकी सब सम्पत्ति पर्याप्त काल सानन्द व्यतीत हुआ। (२-३) एक बार छीन ली और अचल नामक एक व्यापारी को बेच दी, हेम प्रकाश मार्ग से मनोरंजनार्थ नन्दनवन को गये । तब जो बरबराकूना जा रहा था समुद्र में जहाज टूट गया