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१९२, वर्ष २३, कि०४
भनेकान्त
दर्शननिर्णय' नामक ग्रथ की हस्तप्रति नं० १६६६ बाम्बे वेदबाह्य होने से पुरुषार्थ मे परम्परा से भी म्लेच्छ प्रादि ब्रांच, रायल एसियाटिक सोसायटी में विद्यमान है। उसकी प्रस्थानों की तरह उनका कोई उपयोग नहीं है। सारांश फोटो कापी लालभाई द० विद्या मन्दिर, महमदाबाद मे यह है कि उनके मत में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व है। उसकी प्रतिलिपि डॉ० नगीन शाह की है। उसे पढ़ने और उत्तर मीमांसा-इन छह प्रसिद्ध वैदिक दर्शनी के से ज्ञात होता है कि उसमे प्राचार्य मेरुतुंग ने क्रमशः बौद्ध, अलावा पाशपत और वैष्णव-पाचरातो का भी वंदिक मीमांसा (वेदान्त के माय), सारूप, नैयायिक, वैशेषिक प्रास्तिक दर्शनों में समावेश है। और नास्तिक अब दिक और जैनदर्शन-इन छह दर्शनों-सम्बन्धी मीमासा की है। दर्शनों मे भी छह दर्शन उनको अभिप्रेत है। इस प्रथ में तत्तत् दरों न-सम्बन्धी खासकर दव, गुरु मार वैदिक दर्शनों के पारस्परिक विरोध का समाधान धर्म के स्वरूप का निरूपण करके जैनमतानुसार उसकी
उन्होंने यह कहकर किया है कि ये सभी मुनि भ्रान्त तो समीक्षा की गयी है और अन्त में जनसमत दव-गुरु-धम का हो नहीं मकते क्योंकि वे सर्वज थे। किन्तु बाह्य विषय स्वरूप निरूपित करके, वैसा ही स्वरूप महाभारत, पुराण,
मे लगे हुए लोगों को परमपुरुषार्थ मे प्रविष्ट होना कठिन स्मृति प्रादि भी समर्थित होता है ऐसा दिखाने का प्रयत्न
होता है प्रतएव नास्तिको का निराकरण करने के लिए किया गया है। प्रा. मेरुलुग की यह रचना वि. १४४४ पौर
इन मुनियो ने प्रकार भेद किये है। लोगो ने इन मुनियो वि०१४४६ के बीच हुई है मा श्री देसाई कृत 'जैन साहि- का प्राशय समझा नही और कल्पना करने लगे कि वेद त्यनो संक्षिप्त इतिहास' (पृ. ४४२) से प्रतीत होता है। से विरोधी अर्थ में भी इन मुनियों का तात्पर्य है और
मधुसूदन सरस्वती (ई. १५४०-१६४७) द्वारा उसी का अनुसरण करने लगे है। रचित 'प्रस्थानभेद' भी सर्वदर्शनसग्राहक पंथ कहा जा पडदर्शनसमुच्चय की सोमतिलककृत 'वृत्ति के अन्त सकता है। उसमें सभी प्रधान शास्त्रों का परिगणन किया मे 'लघुषड्दर्शनसमुच्चय' के नाम से प्रज्ञातकर्तृक एक है। तदनुसार वेद के उपागो में पुराण, न्याय, मीमांसा कृति मुद्रित है उसके प्रारम्भ मे ---- और धर्मशास्त्र का संग्रह किया गया है । और उनके मना
जैन नैयायिक बौद्ध काणादं जमनीयकम् । नुसार वैशेषिक दर्शन का न्याय, वेदान्त का मीमांसा में
सांस्यं षड्दर्शनीय [च] नास्तिकीयं तु सप्तमम् ॥ तथा सांख्य पोर पातजन, पाशुपत और वैष्णव मादि
यह कारिका देकर क्रमशः उक्त दर्शनो का परिचय का धर्मशास्त्र में समावेश है। और इन सभी को उन्होंने
अति संक्षेप में दिया गया है। अन्त मे अन्य दर्शनों को 'मास्तिक' माना है।'
दुर्नयकोटि में रख कर जैन दर्शनों को 'प्रमाण बताया ग । मधुसूदन सरस्वती ने नास्तिकों के भी छह प्रस्थानों
है । इससे सिद्ध है कि इसका कर्ता कोई जैन लेखक है। का उल्लेख किया है। वे ये हैं-माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्त्रिक और वैभाषिक-ये चार सौगत प्रस्थान तथा [षड्दर्शन समुच्चय की भूमिका से साभार] चार्वाक और दिगम्बर ।' मधुसूदन का कहना है कि शास्त्रों में इन प्रस्थानों का समावेश उचित नहीं क्योंकि १. प्रस्थानभेद (पुस्तकालय स. स. मंडल, बरोडा, ४. पृ० ५। ई. १९३५) पृ०१। '
५. प्रस्थानभेद पृ० ५७। २. वही प०१। ३.पृ०५।
६. मुक्ताएाई ज्ञानमन्दिर, उभोई द्वारा प्रकाशित ।