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सिम्मान
धनजयकृत
राधव पाण्डवीय
। है।
दण्ड के बाद वह इस विधा के पुरस्कर्ता प्रतीत होते है रामवन्पाण्डवीय मात्र दूसरा शीर्षक है। धनंजय तथा कविराज कृत धनंजय तथा कविराज के काव्य की तुलना रुचिकर है यनंजय के काव्य का एक नाम राघवन्पाण्डवीय जो कि कविराज के काव्य का मूल शीर्षक है । धनजय के काव्य में अठारह सर्ग तथा ११०५ पद्य है, जबकि कविराज के काव्य में तेरह सर्ग तथा ६६४ पद्य है । धनंजय ने श्लेष से अपने नाम का उल्लेख किया है जबकि कविराज ने प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में अपने श्राश्रयदाता कामदेव का नामोल्लेख किया है। वास्तव में उनका काव्य कामदेवाक है । इन दोनों काव्यो की विषयवस्तु की पूर्ण तुलना एक प्रबन्ध का विषय है । साधारणतया पढने पर लगता है कि इन दोनो काव्यों में कोई बहुत बडी समानता नही है । धनंजय के वर्णन अधिक है जब कि कविराज ने श्लेष की बाध्यता के बावजूद अपनी कथा के विवरणों को सफलतापूर्वक अभिव्य किया है (देखे १-५४, ६६ प्रादि) । जहाँ तक श्लेष का सम्बन्ध है कविराज भाषा पर अधिक योग्यता तथा अधिकार व्यक्त करते है । धनजय का काव्य सर्वोच्च काव्य का प्रतीक स्मारक कहा जाता है। निःसन्देह उनका पाण्डित्य विशाल है विशेषरूप से नीतिशास्त्र का और उनके कनिपय अर्थान्तरन्यास वास्तव में गम्भीर एवं प्रभावकारी है । कविराज की शैली सहज तथा सक्षिप्त है जबकि धनजय ने प्राय: कठिन संस्कृत लिखी है, जिसे समझने के लिए प्रापः प्रयत्न की अपेक्षा होती है। उनके वर्णनो की प्रस्तुति में पर्थक दलोक बहुत कम है जब कि कवि राज की रचना में यह सामान्य बात है । जहा तक हमने देखा है इन दोनों काव्यो मे किचित् ही ऐसा होगा जिसे एक दूसरे का अनुकरण कहा जा सके ।
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श्रुतिकीर्ति और उनका राघव पाण्डवीय एक और कवि है भूतिकति विद्य जिन्होंने गत प्रत्यागत पद्धति से राघवपाण्डवीय की रचना की, जो विद्वानों के लिए घर की वस्तु है, जैसा आश्चयं प्रौत्सुक्य कि नागचन्द्र या अभिनव पम्प ने अपने कन्नड मे लिखित रामचन्द्रचरित पुराण ( पाण्डुलिपि) या पम्परामायण
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महाकाव्य
( १.२४ ५, बगलौर, १६२१) में लिखा है-श्राव वादिकथाश्रयप्रवणदोल्" विद्वज्जनं में च्चे विद्या के परवादिभिभूत्यक्षभ । देवेड' कविवि विद्यास्त्रदि
विद्यतीति दिव्यमुनियो विश्वातियादि ।।२४।। भतीतिविद्यति राघवपाण्डवीय विपचमत्कृतियेनिसि गतप्रत्यागतविमलकीतियं प्रकटिसि ॥२५॥
ये दो पवनगोन के एक शिलालेख सस्या ४० सी ६४ सन् १९६३ ई० मे उद्धृत है । इन श्रुतकीर्ति त्रैविद्य का उल्लेख तेरदाल के १२२३ ईसवी के एक शिलालेख में है
परवाचार समेतीतिविद्य तिरुपत्वादिप्रतिभाप्रदीपपवन जतदोषर् नेगलूदरखिलभुवनान्तरदोल ।
राजा गोंकने कोनागिरि या कोल्हापुर के मानन्दि सैद्धान्तिक के ( निम्व सामन्त गुरु ) के लिए भेजा था तथा उनके साथी कनकनन्दी तथा भूतकीति विद्य कोल्हापुर से प्राप्त ११३५ ईसवी के एक अन्य शिलालेख (एपिफिया कि जिद १९, पृष्ठ ३०, जैन शिलालेख सग्रह भाग ४, बनारस १९६४, पृष्ठ १६२-६६ ) मे श्रुतकीर्ति का उल्लेख कोल्हापुर की रूपनारायण वसदि के प्राचार्य रूप मे हुआ है-
दादियुतेनेय राक्षससवत्सरद कार्तिक बहुतपचमिसोमवान्दद् श्रीमूलमदेसीवगण पुस्तकगच्छद कोल्लापुरद धीरूपनारायणवस दिवाचार्यरम्प श्रीतकीति श्रीरूपनारायणवसदियाचार्य विद्यदेवर कालं कचि इत्यादि ।
नागचन्द्र ने उन्हें व्रती कहा है। उसी तरह तेरदाल शिलालेख में भी । अर्थात् ११२३ ईसवी में वे व्रती थे किन्तु ११३५ सवो मे एक पाचार्य की प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे। विद्वानों की राय में (धार नरसिंहाचार्य कर्नाटक कविचारित भाग १. १९६९, पृष्ठ १२० बंगलोर ई०) नागचन्द्र ११०० ईसवी के लगभग हुए इसका तात्पर्य यह हुआ कि श्रुतकीति का समय ११०० से ११५० ईसबी के मध्य अनुमानित किया जा सकता है। अभी तक