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११२, वर्ष २३ कि०३
अनेकान्त
दाप
स्वानि सप्त भुवने कुमाषकारे
कारुण्यरत्नांकुररोहणायः पाश्वं प्रभुर्भवतु संष विभूतये वः ॥२॥
कोतिन्छटाधौत दिगंबरश्रियः अर्थ :-वे पाश्र्व प्रभु तुम्हारी विभूति के लिए हों श्रीमूलसंघे मनय: पुनन्तु वः ॥५॥ जिनके मस्तक पर नागराज के सात फण रूपी रत्न दीप अर्थ :- स्याद्वाद विद्या रूपी सागर के लिए जो मिथ्या मत रूपी अधकार से व्याप्त इस ससार में सात पूर्णिमा के चाँद है और दयारूपी रत्नांकुरों के जो उदयातत्त्वों को प्रकाशित कर रहे है।
चल है तथा पवित्र कीति वाली दिगम्बर लक्ष्मी से युक्त (विशेष-सुपार्श्वनाथ के १. ५ ६ फण होते हैं तथा है ऐसे मूलसंधी मुनि तुम्हें पवित्र करें। पार्श्वनाथ के ३, ७, ११ फण होते है, यहाँ पार्श्वनाथ के विशेष :-विचार-प्राचार और व्यवहार की दृष्टि ७ फणों का वर्णन है।)
से मूलसघी मुनियो को क्रमश; भनेकान्ती, अहिंसक और विस्र समान-लवणोदधि-मेखलेय
नग्न दिगबर द्योतित किया है।) माकम्पमान कुल शैल नितब बिम्बा।
(स्वागता छंद) यस्मिन्नभूदवनियोषिदिद मुदे वः
इतश्चश्रीवीर भर्तुरमराचल चालनं स्तात् ।।३।।
यज्वपाल इति सार्थक नामा अर्थ :-महावीर भगवान् का वह मेरु कम्पन तुम्हारी संबभूव वसुधा षववंशः। प्रसन्नता के लिए हो, जिसके होने पर यह पृथ्वी रूपी सव्वत: कालतकोतिदुकूलस्त्री लवण समुद्र कपी ढीली करधनी वाली हुई तथा इछत्रमेकमसृजद् भुवने यः ॥६॥ कम्पित कुलाचल रूपी मटकते नितबो वाली हुई।
अर्थ :- (यज्वपाल) (पूजा प्रतिष्ठा कराने वालों (विशेष-गहाँ 'इय' अवनियोपिद के लिए और 'इदं' का रक्षक) इस प्रकार के सार्थक नाम वाला राजवंश अमराचल चालन के लिए प्रयुक्त है।)
हुधा जिसने सर्वत्र अपना कीर्तिवस्त्र फैला कर इस संसार यस्याः प्रसादमधिगम्य जड़ाशयस्या
पर अपना एक छत्र तान दिया था। प्याभाति सारसविशिष्टनिनाद संग्या ।
(उपजाति छद) श्रीः शारदीन शिशिरवयति कौमुदीव
कुले किलास्मिन्नजनिष्ट वीरसाऽहन्निशं मनसि दोव्यतु शारदा मे ॥४॥
चूड़ामणिः श्री परमाडिराजः । अर्थ :-वह सरस्वती गत-दिन मेरे मन में स्फुराय
शूरच्छिदा भत्सित तारक श्री: मान रहे जिसके प्रसाद से मूर्ख की प्रतिभा भी सार और
स्कंदोऽपि नास्कंदति येन साम्यम् ।।७।। विशिष्ट भाषा युक्त हो शोभा को प्राप्त होती है जिस अर्थ :-इस वंश में वीर चूडामणि श्री परमाद्रिराज तरह शरदकालीन चाँदनी मे सरोवर की शोभा भी सो उत्पन्न हुए । तारकासुर का वध करने वाले स्वामी कातिके मधुर कलरव से गुजायमान होकर बढ़ जाती है।
केय भी जिनकी शत्रु हनन में समता नहीं करते । (विशेष :-साहित्य मे 'ड' और 'ल' एक माने गये (विशेष :-अद्रि का अर्थ सूर्य भी होता है सूर्य के हैं तदनुसार यहाँ जडाशय (मूर्ख) और जलाशय (सरोवर) उगते ही जैसे तारों की शोभा विलीन हो जाती है वैसे दोनो का ग्रहण किया गया है। 'शिशिरदयति' का अर्थ ही परमाद्रिगज के पैदा होते ही शत्रु समाप्त हो गये।) चन्द्रमा है ।) सारस का अर्थ कमल भी होता है उस पक्ष नोट :--'इतश्च' का मतलब है यहाँ से प्रशस्ति प्रारम्भ में-"सरोवर की शोभा भ्रमरों से गंजायमान कमलों से होती है। इससे पूर्व ५ श्लोकों में मंगलाचरण है। सुशोभित हो रही थी" ऐमा करना चाहिए ।
१ से ३ मे क्रमश: ऋषभ, पार्श्व और महावीर जिन (इन्द्रवंशा-छंद)
देव, ४ में शास्त्र और ५ में गुरू इस तरह देवशास्त्र स्यावावविदयार्णव पार्वणेन्दवः
गुरू का स्वस्ति पाट किया है।)