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जैन दर्शन में आत्म- द्रव्य विचार
श्री मुक्ताप्रसाद
जंनदर्शनाचार्य
संस्थापक के रूप में पादि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का होना केवल जैन शास्त्रों से ही नहीं बल्कि जैन धर्मेतर ग्रन्थों के भी सन्दर्भों एवं विश्लेषणो द्वारा स्पष्टतः सिद्ध होता है । इस प्रकार की पर्याप्त सामग्री प्रबंध में दी गयी है ।
मनुष्य की प्रवृत्ति प्रारम्भ से ही दुःख विनाश के प्रति उन्मुख रही है। इसलिए दृश्यमान् समस्त जगत् एवं तज्जन्य पर्यायों के प्राप्त सुख एवं दुःखों के प्रात्यन्तिक विनाश के उपरान्त परमश्रेय की प्राप्ति के उद्देश्य से विभिन्न ऋषियों ने अपने अपने दृष्टिकोणों से तत्तद्दर्शनो का निर्माण किया है। इन अनिश्चित संख्या वाले विभिन्न दर्शनों को प्रमुख दो ग्रास्तिक एव नास्तिक श्रेणियो मे बाँटा जाता है। अभी तक के सिद्धांतो पर पर्यालोचन करने पर इसका अनौचित्य स्वतः सिद्ध हो जाता है। क्योकि एक ओर तो उपनिषदो और गीता जैसे दार्शनिक ग्रन्थों को, जो कि वेदों के लौकिकत्व का प्रबल समर्थन करते है, तथा साख्य और वैशेषिक जैसे निरीश्वरवादय को भी प्रास्तिक श्रेणी में रखा गया है, जबकि दूसरी ओर पर माध्यात्मिक जैन प्रोर बौद्ध दर्शनों को नास्तिक श्रेणी में रखा गया है। इस सन्दर्भ मे प्रमुख सिद्धातो का समालोचन प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में विस्तार से किया गया है । कतिपय भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वान जैन दर्शन का प्रतिक्रियात्मक रूप में मानते चले आ रहे है जब कि अनेक भारतीयों एवं पाश्चात्य विद्वानो ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है कि महावीर भगवान ने प्रतिक्रियात्मक रूप में जैन दर्शन की स्थापना नही की, अपितु उन्होंने उसी प्राचीन दर्शन ( एवं धर्म) का प्रचार एव प्रसार किया है, जो कि उनके पूर्ववर्ती तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के द्वारा प्रचारित एव प्रसारित किया गया था। इस प्रकार यह धर्म पार्श्वनाथ तीबंदूर (तेईसवे तीर्थदूर) से भी पूर्ववर्ती कई तीर्थङ्करों द्वारा विकास को प्राप्त होता रहा था। वस्तुतः इस धर्म के तथा दर्शन के
वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी की विद्यावारिधि (Ph. D.) उपाधि के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का सक्षिप्त सार ।
जीव को अपना प्रभीष्ट (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए यह परमावश्यक हो जाता है कि उसे इस संसार की सृष्टि के मूल कारणभूत द्रव्यों का वास्तविक ज्ञान हो। इसी उद्देश्य से जैन दर्शन ने वस्तु जो धर्म माने हैं, वस्तुतः इनके दर्शन (साक्षात्कार) के प्रभाव में इन इव्यों का स्वरूप सर्वथा अस्पष्ट रह जाता है। विज्ञान ने भौतिक जगत के सम्बन्ध मे जो कुछ भी जानकारियां देना प्रारम्भ किया है, चाहे वह भी पूर्ण ही क्यों न हों, किन्तु उनसे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि हम अभी तक जिस द्रव्य को 'एक रूप' मानते थे और यह सोचते थे कि इसका विभाजन असम्भव है, इसलिए इसके एकाधिक रूप नही हो सकते, यह धारणा एक ही द्रव्य के अन्य अनेक स्वरूपो एवं भेदों को प्रकट करके जैन दर्शन की उन मान्यताओं का प्रबल समर्थन कर दिया है जिनमे स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक द्रव्य सामान्य विशेष स्वरूप वाला, सप एवं प्रसव एकानेकात्मक, मनस धर्मात्मक (भावाभावात्मक ), नित्यानित्यामक तथा भेदाHere आदि अनेक स्वरूपों से प्रतिक्षण सम्बन्धित रहता है।
याधुनिक विज्ञान ने जैन दर्शन के द्रव्यों के निर्धारण के प्रोषित्य को सिद्ध करने के लिए भी अपने पाfवष्कार ईथर' द्रव्य के द्वारा धर्मद्रव्य की सार्थकता का समर्थन कर दिया है। ईधर और धर्मद्रस्य सम्बन्धी माधुनिक वैज्ञानिक और जैन दार्शनिको के निर्णयात्मक विश्लेषण के स्वरूप को देखने पर ऐसा लगता है कि यह वही 'ईथर' द्रव्य है जो कि सहस्रों वर्ष पूर्व जैन दार्शनिको ने धर्मद्रव्य