SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२, बर्ष २३, कि० ५-६ अनेकान्त माना था। माधुनिक विज्ञान ने जैन दर्शन द्वारा स्वीकृत है 'प्रपेक्षावाद' का सिद्धांत । यह सिद्धांत भी एक तरह . शब्द की पोद्गलिकता (पार्थिवस्वरूप) को जिस हद तक से 'स्याद्वाद' का ही विज्ञान के माध्यम से प्रस्तुत दूसरा अपने भौतिक यत्रों द्वारा शब्द को संगृहीत करके पुष्ट रूप ही है और कुछ नहीं। इस सिद्धात की सरलता एव किया है उसके लिए जैन दार्शनिको को उपकृत समझना कठिनता के विश्लेषण के साथ इसके ज्ञान के द्वारोचाहिए। इस प्रकार गति के माध्यम के रूप में एक नवीन सात नयों का भी विवेचन किया गया है जिसमे यह द्रव्य धर्म की कल्पना, जो कि अन्य दार्शनिकों के लिए स्पष्ट किया गया है कि विभिन्न स्वभाव वाले ये सातो अभी तक दुग्वबोध बनी हुई है तथा शब्द की पौद्गलिकता नय यदि परस्पर निरपेक्ष हैं नो वे मिथ्या होने के कारण जिसे अन्य दार्शनिक स्वीकार करना नहीं चाहते। जैन 'स्याद्वाद' के स्वरूप के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कगने दार्शनिक सिद्धात, जो कि कालद्रव्य की वर्तना के बारे मे मे सर्वथा असमर्थ रहते है । किन्तु जब यही पररपर जैन दार्शनिको ने स्वीकृत करते समय निर्धारित किया सापेक्ष रहते है तो सम्यक स्वरूप प्राप्त करके वस्तु के था कि 'काल के विभाजन का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र से अनन्त धर्मों के व्यवस्थापक स्याद्वाद के बोधक हो जाते बाहर के क्षेत्रों तथा अन्य लोकों में मनुष्य क्षेत्र के है। इस प्रकार जैन दर्शन में आधुनिक विज्ञान के इस व्यवहार के आधार पर ही होता है' का प्रबल प्रमाण सिद्धात की भी चरितार्थता प्राप्त हो जाती है कि--'दो रूस और अमेरिका द्वारा प्रेषित 'लूना' तथा 'अपोलो' ऋण' मिलकर 'धन' बन जाते है अर्थात् दो निगेटिवों के नामक चन्द्रयानों के कार्यक्रमो के काल-निर्धारण ने प्रति- सयोग को ही पोजीटिव माना गया है। इसी प्रकार इन पादित कर दिया है । द्रव्यो के विवेचन के इसी प्रसङ्ग मे पृथक्-पृथक् मिथ्या नयो का (निरपेक्षता का) सयोग अन्य दार्शनिकों द्वारा परिकल्पित द्रव्यों का जैन दार्शनिक सापेक्षता (सम्यकत्व) का स्वरूप प्राप्त कर लेता है। द्रव्यों मे अन्तर्भाव का निरूपण करते हुए अव्यवावयवियो, 'प्रात्मा' का विवेचन शोध प्रबंध के तीसरे प्रध्याय गणपर्यायो के पृथक-पृथक् मानने के सिद्धांतों का खण्डन से प्रारम्भ है, जो कि उपसंहार तक चलता है। इस विवेचन तथा गुणों को भी स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मानने की में जैन दर्शन सम्मत 'जीव' (ससारावस्था में स्थित) तथा युक्तियों का उल्लेख भी स्पष्टत: कर दिया है। 'प्रात्मा' (सामारिक बन्धनो से रहित, विशुद्ध चैतन्यशक्ति) जैन दर्शन के प्राणभूत 'स्याद्वाद' का विश्लेषण द्रव्यों की व्यत्पत्ति में प्रात्मा को ज्ञान शक्ति वाला (प्रततिके ज्ञान का प्रत्यावश्यक प्रग है । इसके समझे बिना, गच्छति इति प्रात्मा) तथा जीव को दश प्राणो से युक्त इसे स्वीकार किए बिना द्रव्यो की अनन्त घत्मिकता जीवन क्रिया वाला (दशभिः प्राण सह योऽजीवन, जीवति, बद्धि से परे ही रहती है । वास्तव में जिस सिद्धात को हम जीविष्यति च य सः जीवः) माना गया है । यहाँ पर विशेष अपने दैनिक व्यवहार में कभी भी असंगत नही मानते है, स्मरणीय यह है कि 'प्राण' जैन दार्शनिको न जीव के ही माने हमे इस बात पर कभी भी प्रापत्ति नहीं होता है कि एक है, न कि आत्मा के । इन्ही प्राणो से किसी जीव को रहित व्यक्ति जिसे अपना पिता समझता ही नहीं बल्कि अपने कर देना 'हिंसा' है। प्रात्मा को प्राय. सभी दार्शनिक जीवन भर के तमाम प्राचरणों से सिद्ध करता है कि यह अछेद्य, अभेद्य, अमर मानते है इसलिए प्रात्मा का मरण मेरा पिता है, उसी व्यक्ति को दूसरे लोग भाई, चाचा, तो कथमपि सम्भव नहीं होता। इस जीव का लक्षण जैन मामा, साला, बहनोई सिद्ध करने में अपना जीवन तक दार्शनिको ने 'देखने और जानने का स्वभाव'(उपयोग वाला) बाजी पर लगा देते है। इसी सिद्धात को मानने के लिए माना है। इसलिए जीव स्वभावतः जगत के प्रत्येक पदार्थ जब किसी विद्वान के सामने पदार्थों को माध्यम बनाया को देखते और जानते हुए जब उसमे रागात्मक प्रवृत्ति करने जाता है तो वे क्यो हिचकिचात है, ममझ मे नही पाता। लगता है, तो उसका शुद्ध स्वरूप विकृत होने लगता है। जहां तक इसकी वैज्ञानिकता का प्रश्न है, आज बीसवी और इसके साथ जब उसको प्रवृत्ति मे नरन्तर्य मा जाता है, शताब्दी की विज्ञान को जो प्रमुख देन मानी जाती है वह तो उसकी इसी परिणति को विभाव परिणति कहा जाता है।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy