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यकृत सन्मान महाकाव्य
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की रचना मानते हैं। दूसरे विच एक उपाधि है जो श्रागम, तर्क और व्याकरण में दक्षता पाने की सूचिका है परन्तु श्रुतकीर्ति इस प्रकार की कोई उपाधि नही, उसे तो अनेक जैनाचार्यों ने अपने नियमित नाम के रूप में स्वीकारा है । प्रतएव धनजय और श्रुतकीर्ति को एक मानना युक्तियुक्त नही । कविराज के समान श्रुतकीर्ति त्रैविद्य ने भी सम्भवतः राघवपाण्डवोय लिखा होगा । वह हमे उपलब्ध नही । परन्तु उसे धनजय के राघवपाण्डवीय से पृथक ही मानना होगा। क्योकि धनंजय और श्रुतकीर्ति को एक व्यक्तित्व मानने के लिए कोई प्रमाण हमारे पास नही है । तीमरे श्रुतकीर्ति दान शिलालेख और पम्प के कथनानु वार व्रती या और बाद मे कोल्हापुर मिलाने मे इन्हे प्राचार्य के रूप मे स्मरण किया है । परन्तु उपलब्ध प्रमाणो से यह हम जानते है कि नहीं । उन्होने अपनी ऐसी किसी परम्परा का भी उल्लेख नही किया और चुतकीति के राघवपाण्डवीय के सन्दर्भ मे अभिनव पम्प द्वारा प्रस्तुत वर्णन घनजय के द्विसन्धान काव्य से मेल नहीं खाता भूतकांति का राघवपाण्डवीय, गत प्रत्यागत प्रकार का है जब कि धनजय का द्विसन्धान इस प्रकार का नही. उसमे तो गतप्रत्यागत प्रकार के एक दो पद्य ही प्राप्त है । इस प्रकार, जैसा स्पष्ट है, वीरसेन नाममाला से एक पद्य उद्धृत किया है और भाज ने धनजय और द्विसन्धान का उल्लेख किया है श्रुतकीर्ति भौर धनजय एक सिद्ध नहीं होते ।
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रचयिता सिन्यान का भी रचयिता है। "काव्य का प्रत्येक पद्य र्थक है, दो प्रकार की प्रर्थ प्रस्तुति को द्विमन्धान कहा जाता है ।" उनके समक्ष काव्य की दो प्रतियाँ ( नम्बर ११४२ और ११४३) रहीं जिनमे दूसरी प्रति नेमिचन्द्र की टीका सहित है। उन्होने भी लिखा है कि वर्धमान ( सवत् १९७६- सन् १९४७ ) ने अपने गुणरत्न महोदधि (१०.५१, १८.२२, ४.६ ) मे द्विमन्धान को उद्धृत किया है ( एगलिंग सम्करण, पृष्ठ ६७, ४०६, ४३५ ) । " काव्य का सही शीर्षक है- -राघव पाण्डवीय : प्रत्येक पद्य में दो अर्थ है, प्रथम अर्थ महाभारत कथानक से सम्बद्ध है और दूसरा रामकथा को व्यक्त करता है ।" चूंकि जैनाचायों ने बाण लोक-साहित्य (Profane literature ) का अनुकरण किया है, और हम जनों के गृहस्थ थे, मुनिमेषदूत से परिचित है, यह कल्पना निश्क नहीं होगी कि
भण्डारकर द्वारा मान्य धनंजय का काल
भार. जी. भण्डारकर (रिपोर्ट आन द सचं फार मंस्ट्सि इन द बाम्बे प्रेसोदेसी ड्यूरिंग द इयरस १०४८५१०८६१००६-०७ १८६४) ने घनजय नामक एक दिगम्बर जैन के काव्य की दो प्रतियों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि प्रथम भाग के अन्तिम पद्य मे रचयिता को कवि कहा गया है । उन्होने बाद के पद्य को भी उद्धृत किया है, जिसमे कहा गया है कि "कलक की तर्कपद्धति, पूज्यपाद का व्याकरण और द्विसन्धान के कवि का काव्य ये त्रिग्न है।" उन्होने यह कह कर निष्कर्ष निकाला है कि संस्कृत कोष का
धनजय ने राघव पाण्डवीय को कथा कविराज नामक किसी ब्राह्मण कवि से ली है । कविराज का समय धाराश्रीश मुज के बाद होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपने सरक्षक जयन्तीपुरा के कामदेव की तुलना मुज ( मृत्यु ९e६ में हुई) से की है। वर्तमान वा काल ११४७ है । प्रतएव भण्डारकर कविराज और धनजय को सन् ६६६ मौर ११४७ के बीच रखते है, ' धनुकरण की कल्पना को सत्य माना जाए तो कविराज को धनजय से अवस्था में बड़े होना चाहिए । भण्डारकर ने पाठक के मत पर भी विचार किया। उन्होंने लिखा है : ऐसा कोई प्रमाण नही जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि श्रुतकीति और पनजय एक हैतु समकालीन पम्प के पुत्र के समय के यापार पर पूर्व निर्णीत समय सही बैठता है और निष्कर्ष दो व्यक्rिeat और काव्यों को पृथक् स्वीकार करने के विपरीत नहीं पहुँचता
भण्डारकर के मत की समीक्षा
आर. जी. भण्डारकर अपने मत की अभिव्यक्ति मे त्यन्त सावधान रहते है उन्होने पनजय और बुतकीर्ति को एक मानने में पूर्ण स्वीकृति व्यक्त नही की। उनका यह दृष्टिकोण सामान्य कथन के रूप में स्वीकार किया जा सकता है कि जंनाचार्यों ने अपन कथा-साहित्य का मनु